अष्टांग योग साधना (आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार )



योग साधना में महर्षि पतंजलि के योग सुत्र में वर्णित अष्टांग योग साधना के अंतर्गत हमने इस से पूर्व के लेखों में यम, नियम साधना को बिन्दुबार जाना व समझा। अपने आध्यात्मिक लेखों की श्रंखला को आगे बढ़ाते हुए आसन, प्राणायाम व प्रत्याहार साधना को जानेंगे। साधक अष्टांग योग साधना के अंतर्गत यम व नियम का पालन करते हुए अपने मन और शरीर की अशुद्वियों को दूर कर मन व शरीर को स्थिर करने की ओर अग्रशील होता हैं....

आसन 
साधक को आसन की साधना आरंभ करने से पूर्व आसन का स्पष्ट अर्थ ज्ञात होना नितांत आवश्यक हैं। वर्तमान युग में आसन अर्थात वे विभिन्न शारीरिक मुद्राएँ जो  योग कक्षाओं में सामान्यतः लोगों को सिखाई जा रहीं हैं, जैसे हलासन, मत्स्यासन, गोमुख आसन इत्यादि , किन्तु आसन को विभिन्न शारीरिक अवस्थाओं तक ही सिमित कर के समझाना उचित नहीं होगा। 
जो विभिन्न योग कक्षाओं भिन्न भिन्न अवस्थाओं में शरीर को स्थिर करने की प्रक्रिया आज सिखाई जा रही हैं वह मूलतः हठ योग का भाग हैं। आसनों का सम्पूर्ण वर्णन हठ योग के ग्रंथो में ही उपलब्ध होता हैं, हठ योग प्रदीपिका का आसन के योग अभ्यास में प्रथम स्थान हैं, हठ योग में आसनों के अनेक भेद बतायें गये जिनका अभ्यास आज कल योग कक्षाओं में कराया जा रहा हैं।
किन्तु अष्टांग योग में महर्षि पतंजलि आसन को परिभाषित करते हैं -

                            "स्थिर सुख आसनं"

शरीर की वहा अवस्था जो स्थिर और सुखमय हो 'आसन' कहलाती हैं, उन्होंने पृथक से कोई आसन का वर्णन न  करते हुए केवल स्थिर सुख आसनम का वर्णन  किया, अर्थात साधक द्वारा यम व नियम के पालन के पश्चात चित्त से मलिनता का परित्याग होना आरम्भ हो जाता हैं व चित्त शरीर और मन की स्थिरता की मांग करने लगता हैं तथा शरीर व मन की इसी स्थिरता का नाम 'आसन' हैं। आसन में स्थिरता व सुख होने पर ही चित्त प्राणायाम आदि क्रिया सम्पन्न कर पता हैं....
 
स्वमी विवेकानंद के अनुसार
" आसन में स्थिरता से तात्पर्य है शरीर के अस्तित्व का बिलकुल भान न होना। "
 
आसन के परिणाम
 
आसन के परिणाम शारीरक और मानसिक दोनों रूपों में प्राप्त होते हैं,
आसन के लाभ, हठप्रदीपिका में वर्णित विभिन्न आसनों के अनुरूप -
 
* आसनों का नियमित अभ्यास स्वास्थ्य व शरीर में हल्कापन लता हैं।
* आसन से शरीर के आतंरिक अंगों की कार्यक्षमता बढ़ती हैं।
* आसन का अभ्यास शरीरिक कष्टों से मुक्ति दिलता हैं।
* आसन से शरीर के जोड़े लचीले बनते हैं।
* आसन शरीर की मासपेशिओ में खिचाव उत्पन्न कर उन्हें स्वस्थ और शरीर से विषाक्त तत्वों को बाहर निकलने में     सहायता करते हैं।

आसन के मानसिक लाभ

* जब आसन के अभ्यास में स्थिरता का भाव आ जाएं तो हमें किसी भी प्रकार का दुख द्वन्द आदि विचिलत नहीं   कर पायेंगे, महर्षि पतंजलि ने इसे आसन फल के रूप में स्पष्ट करते हुए कहाँ हैं की -

 ततो द्वन्द्वानभिघातः ॥ २.४८॥
 तत: - आसन की सिद्धि हो जाने पर

 द्वन्द्व: - सर्दी – गर्मी भूख- प्यास, लाभ- हानि आदि द्वंद्व

 अनभिघात:- कम से कम अथवा पूर्ण रूप से नहीं सताते हैं।


* आसन से शरीरिक संतुलन के साथ साथ भावनात्मक संतुलन की भी प्राप्ति होती हैं।

* आसन के नियमित अभ्यास से मन की सजगता का भान बढ़ता जाता हैं एवं साधक एक दृष्टा के रूप में जीवन     यापन करना आरंभ करता हैं।



प्राणायाम

महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग में चौथे अंग के रूप में प्राणायाम साधना कों वर्णित किया हैं । प्राणायाम दो शब्दों का जोड़ है -प्राण +आयाम, 'प्राण' से तात्पर्य उस ऊर्जा, शक्ति, तेज से है जो सम्पूर्ण जगत में प्राण के रूप में विचरण करती हैं तथा 'आयाम' का अर्थ प्राणों को क्रियाशील बनाने से हैं ।


 प्रश्नोपनिषद में प्राणायम का वर्णन करते हुए कहाँ गया...

प्राणस्येदं वशे सर्वं त्रिदिवे यत्‌ प्रतिष्ठितम्‌।
मातेव पुत्रान्‌ रक्षस्व श्रीश्च प्रज्ञां च विधेहि न इति ॥
त्रिदिवे यत् प्रतिष्ठितम् इदं सर्वं प्राणस्य वशे वर्तते । माता पुत्रान् इव अस्मान् रक्षस्व नः श्रीः प्रज्ञां विधेहि। इति ॥


अर्थात
''यह सम्पूर्ण विश्व, यहाँ तक कि जो कुछ स्वर्गों में प्रतिष्ठित है, वह सब 'प्राण' के वश में है; जिस प्रकार माता अपने  नन्हें पुत्रों की रक्षा करती है, उसी प्रकार हमारी रक्षा करिये; हमें सौभाग्य एवं सौन्दर्य (श्री) प्रदान करिये, हमें प्रज्ञा दीजिये।''

इस समस्त जगत में प्राण उस प्रत्येक वस्तु में प्रवाहित होता है जिसका अस्तित्व है किन्तु मनुष्य शरीर में प्राण ऊर्जा और शक्ति वायु के रूप में विचरण करती हैं। यही प्राण वायु मनुष्य जीवन का आधार हैं, इसी प्राण वायु की शरीर में गतिशीलता श्वास और प्रश्वास कहलाती हैं, अर्थात जब जीव आत्मा इस सृष्टि में जन्म लेती हैं तब से उसकी मृत्यु तक यहीं प्राण वायु जीवन का आधार हैं।
 
मनुष्य शरीर के अंतर्गत यह प्राण वायु पंच प्राण और पांच उपप्राण में विभक्त हैं -

प्राण.. प्राण मानव शरीर में नासिका छिद्रों से हृदय स्तर तक प्रवाहित होती हैं।

अपान.. अपान प्राण शरीर के निम्न भाग नाभि से पैरों के तलवों तक प्रवाहित होती हैं।

उदान.. उदान प्राण वह उच्च आरोही ऊर्जा हैं, जो ह्रदय से मष्तिस्क तक प्रवाहित होती हैं।

समान..समान प्राण दो मुख्य चक्रों -अनाहत (हृदय )से मणिपुर (नाभि )चक्रों में प्रवाहित होती हैं।
 
व्यान.. व्यान प्राण मानव शरीर के नाड़ी मार्ग से प्रवाहित हो पुरे शरीर पर और विशेष रूप से नाड़ियों में प्रवाहित होती हैं।

पंच प्राण के साथ उप प्राण मानव शरीर के महत्वपूर्ण कार्यों को विनियमित करते हैं --

नाग, कुर्मा, देवदत्त, कृकला, धनन्जय

महर्षि पतंजलि प्राणायाम को एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया मानते हैं--

तस्मिन्सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः ॥ २.४९॥

तस्मिन् सति, श्वास,प्रश्वासयो: गतिविच्छेद: प्राणायाम:॥
तस्मिन् सति- आसन की सिद्धि हो जाने पर

श्वास - प्राणवायु को अन्दर लेने (पूरक) व

प्रश्वासयो: - प्राणवायु को बाहर छोड़ने की (रेचक)

गतिविच्छेद: - सहज गति को अपने सामर्थ्य अनुरूप रोक देना या स्थिर कर देना ही

प्राणायाम: - प्राणायाम कहलाता है ।


सामान्य भाषा में हमारे द्वारा ली जाने वाली श्वास प्रश्वास के मध्य एक स्वाभाविक ठहराव होता हैं यहीं 'प्राणायाम' हैं। महर्षि पतंजलि प्राणायाम के अभ्यास हेतु पूरक, रेचक व कुंभक के अभ्यास बताते हैं --
  • पूरक.. लम्बी, गहरी व धीमी श्वास को भरना
  • रेचक.. धीमी गति के साथ श्वास को छोड़ना
  • कुम्भक... श्वास को रोके रखना ,ये भी दो प्रकार के हैं _
      बाहरी कुम्भक -पुर्णतः रेचक कर श्वास को बाहर ही रोके रखना |
      आन्तरिक कुम्भक -पूर्णता श्वास को भर श्वास को अंदर ही रोके रखना |

गीता में भी प्राणायाम का उल्लेख भाग चार के श्लोक 29 में मिलता हैं। श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं...

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे |
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा: || 29||

भावर्थ,बहुत से योगी अपान वायु में प्राणवायु को हवन करते हैं और उसी प्रकार प्राण वायु में अपान वायु का हवन करते हैं, इससे सूक्ष्म अवस्थ हो जाने पर अन्य योगी जन प्राण और अपान दोनों की गति को रोककर प्राणायाम परायण हो जाते हैं।

प्राणायाम के परिणाम /लाभ...

* प्राणायाम मन पर नियंत्रण, मानसिक स्थिरता, शांति तथा एकाग्रता विकसित करने की पद्वति हैं।
* इसके अभ्यास से ध्यान के अभ्यास में आसानी होती हैं।
* प्राणायाम के द्वार मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक शक्ति का विकास संभव हो पता हैं।
* इसका अभ्यास षट्चक्रों के जागरण में सहायक हैं।
* साथ ही प्राणायाम अनेक प्रकार के रोगों के निवारण में भी सहायक हैं।
* प्राणायाम से चित्त शुद्धि के द्वार खुलते हैं।
* इन्द्रियों का स्वामी मन हैं व मन पर अंकुश प्राण का हैं।

प्रत्याहार

अष्टांग योग साधना का पंचवा अंग प्रत्याहार साधना हैं, प्रत्याहार बहिरंग व अंतरंग साधना के मध्य एक कड़ी के रूप में कार्य करता हैं। यम, नियम, आसन व प्राणायाम जहाँ साधक के चित्त में उठी वृतियों को शांत करते हुए उसे संसार से बिमुख कर उसको आंतरिक यात्रा की ओर गतिशील करते हैं तो वहीं प्रत्याहार विषय में उलझी हुई इन्द्रियों को भीतर की ओर मोड़ साधक को  योग के उच्च अंगों के लिए अर्थात धारणा, ध्यान व समाधि हेतु साधक के मार्ग का सरलीकरण करते हैं।

 प्रत्याहार दो शब्दों का योग हैं प्रति +आहार, 'प्रति' से अर्थ हैं''विपरीत'। मनुष्य शरीर की पांच ज्ञान इन्द्रियाँ --
आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा;  द्वारा ग्रहण किये जाने वाले विषय हैं.. श्रवण, सुगन्ध, स्पर्श, रूप, स्वाद।
इन्हीं इन्द्रियों से उपजे विषयों को सांसारिकता से बिमुख करते हुए इन्हें आतंरिक करना 'प्रत्याहार' हैं।
महाऋषि पतंजलि प्रत्याहार के स्वरुप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं --

स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः ॥२.५४॥

जब सभी इन्द्रियों का अपने –अपने कार्यों के साथ सम्बन्ध न होने से वे इन्द्रियां चित्त के वास्तविक स्वरूप के अनुरूप कार्य  करती हैं  तो इन्तोद्रियों की ऐसी स्थिति को प्रत्याहार कहते हैं ।
मनुष्य के भीतर विराजमान चेतना ज्ञान प्राप्त करना चाहती हैं और चित्त उसका माध्यम बनता हैं, परन्तु पंच विषयों में अधिक उलझन के कारण चित्त उसमें भटक जाता हैं, अतः इन्द्रियां जब विषय को छोड़ कर विपरीत दिशा में मुड़ती हैं तब प्रत्याहार घटित होता  हैं।

अतः इस लेख में हमने अष्टाँग योग साधना के अंतर्गत आने वाली बहिरंग साधना में आसन, प्राणायाम व प्रत्याहार को समझा, अगले लेख में हम अंतरंग साधना को आरंभ कधारणा ध्यान व समाधि को समझ अष्टाँग योग की साधना को पूर्ण करेंगे।




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