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विचारों का प्रवाह

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कभी आप ने सोचा है की सोशल मीडिया साइट पर आप को वही कन्टेट दिखाया जाता है जो आप देखना चाहते हैं। उदाहरण यू ट्यूब पर एक दो बार हम जिस प्रकार के विडिओ देखते हैं वैसा या उसे से सम्बंधित कंटेंट हमें परोसा जाने लगता हैं। जैसे आप कोई विशेष व्यक्ति या विषय से सम्बंधित न्यूज़ देखते है तो उसी प्रकार के विडिओ आप की साइट पर देखे जा सकते हैं । बच्चे कार्टून देखते हैं तो उसी प्रकार के विडिओ आने लगते हैं इत्यादि। यहाँ प्रक्रिया केबल यू ट्यूब पर नहीं बल्कि फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि आदि साइट्स पर भी देखने को मिलती हैं। या यूँ कहें की इन साइट्स ने हमारे मन-मस्तिष्क की प्रक्रिया को वर्ल्ड वाइड वेब पर अपनाया। अब आप सोचेंगे ये मैं क्या कह रही हूं। जी ये क्रिया मात्र सोशल साइट तक सिमित नहीं बल्कि विचार करें तो हमारा मन या मस्तिष्क ब्रह्माण्ड से वैसे ही विचार ग्रहण करता है जैसी हमारे सूक्ष्म शरीर की वासनायें होती हैं और यही विचार व्यक्ति का जीवन, चरित्र और आगे का रास्ता तय करते हैं। उदाहरण एक वैज्ञानिक की इच्छा के अनुरूप उस का मस्तिष्क काम करता है, ब्रह्माण्ड में उपस्थित वह विचार ग्रहण करता है और

माया

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माया एक ऐसा शब्द जिसे सरलता से समझना आसान नहीं। आत्मा मनुष्य योनि में जन्म लेती हैं, समाज और परिवार से शिक्षा ग्रहण करते हुए बढ़ती है, पढ़ती-लिखती हैं, नौकरी पाती हैं फिर शादी, परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिक परिश्रम, फिर बच्चों को अच्छी परवरिश देना , पढ़ाना, उनकी शादी करना, नाति पोते हो जाएँ, उनका मुँह देख ले फिर इनके मोह में जकड़ जाना। इस पुरी यात्रा में आत्मा यह विस्मरण कर जाती है की जिस उद्देश्य हेतु जन्म लिया वह वासानाओं, मोह, आसक्ति , अपेक्षा के जाल में फंस जाती है तथा अपना मूलस्वरुप भूल जाती हैं, यही माया हैं। माया क्या हैं :- माया प्रतेक वह वस्तु, भावना, व्यक्ति, स्थान हैं जो आप को स्वा से प्रथक कर मात्र उसके विषय में सोचने हेतु विवश कर दें, भवर जाल में फंसा कर परम तत्व चेतना और अपने मूल से दूर ले जाये माया हैं। धन, स्त्री - पुरुष के प्रति आकर्षण व प्रेम की भावना कुछ और नहीं माया का प्रति रूप हैं, यहाँ तक स्वामी विवेकानंद जी ने तो अपनी चर्चित कृति ज्ञान योग में तो माँ की ममता को भी माया का ही रूप बताया। इसी भवर जाल में उलझा मनुष्य स्वयं को भूल जगत के प्रप

जन्मभूमि

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क्या कभी हमने विचार किया है की इस भौतिक संसार में परिवार और बंधनों में जकड़ा जीवन सांसारिक माया के झांसे में आकर बहुत सीमित हो जाता हैं, जबकि मनुष्य जीवन का उदय असीमित, असीम और बंधनों से मुक्त हो कर उन विचारों और रहस्यों को ज्ञात कर परमतत्व को पाने के लिए हुआ हैं। इन्ही में से एक गहन प्रश्न या विचार है की मनुष्य जीव के रूप में हम एक विशेष स्थान पर ही जन्म क्यों लेते हैं ? जैसे मेरा जन्म म. प्र. के शिवपुरी जिले के ग्राम दिनारा में हुआ, मेरी ही दो बहनों में से एक का जन्म शिवपुरी तो दूसरी का झाँसी हुआ। ऐसा क्यों इनका जन्म भी दिनारा क्यों नहीं हुआ या फिर मेरा जन्म झाँसी या देश के किसी और स्थान या विदेश में क्यों नहीं हुआ ? प्रश्न के उत्तर को ज़ब मैंने खोजा एवं जो उत्तर पाया व अनुभव किया तो जाना इसके पीछे कर्म बंधन और कई जन्मों से चली आ रही संस्कारो की कड़ी हैं, जैसे मैंने जिन माता पिता के परिवार में जन्म लिया उनसे और उनके गहन रिश्तों के साथ मेरे पूर्वजन्मों के संस्कारों और कर्मों की एक कड़ी चली आ रही हैं, जिस कारण मैंने इस परिवार में जन्म लिया। बस इसी प्रकार जिस भूमि पर हमने जन

ऊर्जा स्थलों का पुनरुद्धार

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इस लेख में आध्यात्म और राजनीति दोनों क्षेत्रों को समन्वय बना कर लिखा गया हैं। सनातन धर्म में ऊर्जा स्थलों का अत्याधिक महत्व हैं। सर्वप्रथम प्रश्न बनता हैं की यह ऊर्जा स्थल है क्या..? ऊर्जा स्थल अर्थात ऐसे स्थल जहाँ प्रत्यक्ष रूप से सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण कर जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता या सार्थकता को पाया जा सकता हैं। भारत एक ऐसा देश हैं जहाँ इन स्थलों को शक्ति पीठ, ज्योतिर्लिंग, चार धाम और विभिन्न मंदिरों और तीर्थ के रूप में जाना जाता हैं। यहीं कारण रहा की हमारे प्राचीन ऋषि मनीषीयों ने इन स्थलों को धर्म से जोड़ तीर्थ स्थल का दर्ज़ा दिया। ताकि व्यक्ति इसी बहाने यहाँ पहुंचे और इन स्थलों से ऊर्जा पाकर जीवन को सही दिशा देकर परमार्थ की ओर बड़े। किन्तु हमने देखा पिछले कुछ सदियों से यह स्थल अपने स्थान पर तो रहें किन्तु इनकी अवस्था में निरंतर गिरावट चिंता का विषय रहा सभी के लिए। आजादी के उपरांत भी इन स्थलों पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया और यदि यही स्थिति बनी रहती तो आने वाले कुछ वर्षों में यह स्थल लुप्त होने की कगार पर भी पहुंच सकते थे। किन्तु कहा गया हैं ईश्वर के पास द

शिक्षा

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"मनुष्य की अंतरनिहित पूर्णतः को अभीव्यक्त करना ही शिक्षा हैं। " स्वामी विवेकानंद  शिक्षा का वास्तविक अर्थ क्या और किस प्रकार वह मनुष्य के ज्ञान अर्जन हेतु सहायक हैं, इसे समझना भी अत्यंत आवश्यक है क्योंकि आज इस कलयुगी वातावरण में शिक्षा का अर्थ डिग्री को संग्रहित कर नौकरी पाने और पैसा अर्जित करने तक सिमित कर दिया गया हैं। आज जिस के पास जितनी अधिक डिग्री होंगी वह उतना पड़ा लिखा और श्रेष्ठ कहलाता हैं, ये मायने नहीं रखता की उसने डिग्री कैसे प्राप्त की और वास्तव में वह कुछ योग्य भी है या नहीं। इस प्रकार कई उदाहरण आज कल देखने को मिलते हैं, जिन्हें देख वह व्यक्ति शिक्षित हैं भी या नहीं शंका होती है। अभी कुछ माह पूर्व ही तथाकथित पार्टी के एक चर्चित नेता द्वारा देश के प्रधानमंत्री जी को अनपढ़ और अशिक्षित (उनके द्वारा लिए गए तात्कालिक निर्णय के विरुद्ध )बोल कई प्रकार से कई अन्य गलत भाषा शैली का प्रयोग किया गया। यह सब देख मैं अत्यंत अचंभित हुई और विचार करने लगी की इस प्रकार एक चर्चित पार्टी के चर्चित नेता द्वारा लाइव टीवी पर आकर अनियंत्रित भाषा का प्रयोग कर देश के प्रधान

जीवन में आध्यात्म

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जीवन हैं तो संघर्ष है, इसी संघर्ष से गुजरते हुए जो समतल जीवन व्यतीत करता हैं, वास्तव में वही विजेता हैं, आज गृहस्थ जीवन के अपने संघर्ष हैं, संयस्थ के अपने, छात्र जीवन के अपने, जो इन्हे समझते हुए आगे बढ़ता हैं वही जीवन में सफलता और सार्थकता को पाता हैं ... तो हम में से अधिकांश इस संघर्ष से लड़ते लड़ते जीवन में उलझ से जाते हैं और यही से जीवन में आरम्भ होता है तनाव, चिंता, भय जो आगे जा कर रोग का कारण बनता हैं। आज प्रतेक मनुष्य के जीवन में यही उलझने तनाव का कारण हैं, गृहस्थ जीवन में पति पत्नी के मध्य तनाव, पारिवारिक कलेश, छात्र जीवन में प्रतिस्पर्धा और उच्च रोजगार पाने का तनाव, नौकरी में ऊंचे पद सम्मान पाने के लिए खींचा तानी, राजनैतिक स्तर पर सत्ता को पाने के लिए उठा पटक। आज प्रतेक क्षेत्र व जीवन में इस प्रकार का तनाव, चिंता देखना सामान्य है। इसे समझने हेतु हमें जीवन को समझना होगा, आज क्यों यह स्थिति उत्पन्न हुई, इस का मुख्य कारण हैं हम अपने मूल से दूर हो चुके, उस ज्ञान व परम्परा से जो आध्यात्म की जननी रही। वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण और गीता का यदि निरंतर अध्ययन शील हो चिंतन

ब्रह्मचर्य

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जब भी साधना की चर्चा होती हैं तो इस के तहत की जाने वाली ब्रह्मचर्य साधना को अधिक कठिन और नियमों के अनुरूप चलने वाली साधना के रूप में जाना जाता हैं। ब्रह्मचर्य एक ऐसी साधना हैं जिसे ना सिर्फ सनातन धर्म के ष्ठ : दर्शनों में योग दर्शन के तहत अष्टांग योग में विशेष स्थान प्राप्त है, बल्कि बौद्ध और जैन धर्म में भी ब्रह्मचर्य को विशेष और महत्वपूर्ण स्थान दिया गया हैं। ज़ब इतिहास को देखते हैं तो पाते हैं की वैदिक काल के समय जीवन को सुव्यवस्थित ठंग से जीने हेतु अत्यंत सुन्दर तरीके से विभाजित किया गया- * ब्रह्मचर्य( 5 वर्ष से लेकर 25वर्ष तक ) * गृहस्थ ( 25 से 50 वर्ष तक ) * वान प्रस्थ ( 50 से 75 तक ) * संयस्थ (75 से...) अतः हमने देखा की ब्रह्मचर्य साधना का कई धर्मों में विशेष स्थान हैं। किन्तु सामान्य जीवन में हम कही ना कही इस विषय पर चर्चा करने से कतराते हैं या संकोच करते हैं। तो आज हम इस लेख में ब्रह्मचर्य का अर्थ और इसके महत्व को जनाने का प्रयास करेंगे। ब्रह्मचर्य को यदि सरल भाषा में समझें तो यह दो शब्दों का मेल हैं - ब्रह्म और चर्य, 'ब्रह्म' अर्थात सर्वस्य, सर्

चंद्रयान -3

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23/8/23-शाम,6:04 मिनट पर जैसे ही भारत (इसरों ) के चंद्रयान -3 ने चन्द्रमा के दक्षिण ध्रुव पर पैर जमाया, पूरा देश झूम उठा। सचमुच यह क्षण अद्धभुत, अविस्मरणीय, अद्वितीय और अभूतपूर्व रहा। यह वह पल रहा जिसका वर्णन ना केवल भारतीय इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया बल्कि यह पुरे विश्व के लिए ऐतिहासिक और स्वर्णिम हो गया। स्वयं भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने कहा यह सफलता सिर्फ भारत की नहीं समस्त विश्व की हैं और सभी को यह सन्देश भी दिया की यह विकसित भारत का शांखनाथ हैं। वास्तव में चंद्रयान 3 का चन्द्रमा के दक्षिण ध्रुव की सतह पर सफलता पूर्वक सॉफ्ट लैंडिंग करना न केबल भारत के लिए समूचे विश्व के लिए कई मायनों में महत्वपूर्ण है। चंद्रयान 3 की सफलता भारत की सोई और छूपी हुई शक्ति और ऊर्जा का उदघोत हैं। जी हम यहाँ उसी छूपी हुई शक्ति कि बात कर रहें जिसे भारत किन्ही कारणों से भूल चूका था। हमारी इक्षा शक्ति, संकल्प शक्ति व प्राचीन ऋषि मुनियों की वह ऊर्जा जहाँ उन्होंने ध्यान की गहराइयों में जा कर ब्रह्माण्ड के रहस्यों को खोला और बड़े ही बेहतर ठंग से वेदों, पुराणों और उपनि

स्वप्न

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आज प्रातः ज़ब नींद खुली तो एक ऐसा स्वप्न आया जिसने मुझे सपनों के विषय पर सोचने के लिए बाध्य किया। सपने में ऐसे मित्र को पाया जिससे लम्बे वर्षों से कोई संपर्क नहीं हैं एवं वर्षों से उसका विचार तक नहीं किया। बस सपने से जागने के पश्चायत कई प्रश्नन मन में उठे, और इन्ही प्रश्ननों को खोजते खोजते इस लेख में, मैं अपने व्यक्तिगत अनुभवों को आप के साथ साझा कर, सपनों से जुड़े उत्तरों को तथ्य और वैज्ञानिक आधारों पर देखने का प्रयास करेंगे। * सपने क्या हैं ? * सपने क्यों आते हैं ? * इनका क्या महत्व हैं ? * क्या सपनों के महत्व को जान कर जीवन के कुछ अनसुलझे प्रश्ननों के उत्तर प्राप्त किये जा सकते हैं ? सपना एक ऐसा विषय हैं जिसमें हर किसी व्यक्ति को रूचि हैं क्योंकि हर व्यक्ति को भिन्न भिन्न प्रकार के सपने आते हैं और स्वभाविक हैं की व्यक्ति इन से जुड़े रहस्यों को जानना चाहता हैं। सपने क्या हैं - सपने क्या इसे जानने से पूर्व हमें मन और मन की अवस्था के विषय में ज्ञात होना अत्यंत आवश्यक हैं। मन की मुख्यतः दो अवस्थाएं हैं - जाग्रत और स्वप्न। मन जो निरंतर गतिशील हैं। आप कही पर एकांत मे

गुरु

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गुरु शब्द ही ऐसा है जिसे सुनने मात्र से एक सकारात्मक ऊर्जा का आभास होता हैं। गुरु मात्र एक शब्द या व्यक्ति नही बल्कि एक भावना हैं, आस्था हैं,श्रद्धा हैं, विश्वास हैं। जो व्यक्ति जीवन में गुरुतत्व के साथ जीता है, उसका जीवन स्वतः ही सार्थक बन जाता हैं। गुरु का अर्थ है वह जो अन्धकार को समाप्त कर प्रकाशमान की ओर ले जाये। जैसे शिक्षा और ज्ञान अन्धकार रूपी अज्ञान से प्रकाश की ओर ले जाते हैं। सनातन वैदिक हिन्दू धर्म के अनेक धर्म ग्रन्थों ने गुरु महिमा को समवेत स्वर से गाया है। उपनिषदों का तो सृजन ही गुरु शिष्य के मध् हुए संवादों से हुआ है।  देखा जाए तो बाल्यकाल से अब तक हमने जहाँ से भी शिक्षा पाई है, जिससे भी कुछ ज्ञान ग्रहण किया है वह सब हमारे गुरु हैं। जैसे माता - पिता, हमारे परिवारजन, विद्यालय के शिक्षक, प्रकृति व अन्य सभी वह प्राणी, पुस्तक, समाज जो पल पल हमें आ शिक्षा देते रहे हैं। लेकिन हमें शिक्षक और गुरु के भेद को समझना होगा।  सभी प्रकार की लौकिक एवं भौतिक शिक्षा देने वाले व्यक्ति हमारे  शिक्षक हो सकते हैं लेकिन गुरु वह जो जीवन में व्याप्त अज्ञान (इग्नोरेंस ) को सर्वदा के ल

द केरला स्टोरी और सनातन

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हाल ही में रिलीज हुई फ़िल्म 'द केरला स्टोरी' के कारण देश में जढ़े बना रही दो समस्या पुनः ज्वालित हो उठी 'लव जिहाद' और 'धर्मान्तरण' । इस लेख को लिखने का विचार मन में आया ज़ब एक न्यूज़ चैनल पर देखा कि किस प्रकार केरला में हिन्दू लड़कियों का मुस्लिम धर्म में धर्मान्तरण किया जाता हैं, धर्मान्तरण और लव जिहाद का यह मामला केवल केरला तक नहीं बल्कि छत्तीसगढ़, झारखण्ड, बिहार व उत्तर पूर्वी राज्यों तक भी तेजी से बड़ा हैं। यहाँ प्रश्न उठता है कि जब हमारी भोली भाली लड़कियों और आदिवासी समाज को यह गलत तर्क दिया जाता है कि आप के सनातन धर्म में तो 33 करोड़ देवी देवता हैं इनका क्या अर्थ हैं, हम तो केवल एक आल्हा पर विश्वास करते है तो वही ईसाई पंथ का कहना हमारे यहाँ तो मात्र जीजस और क्रॉस को मान्यता, किन्तु आपके 33 करोड़ देव हास्य का विषय हैं। सर्व प्रथम तो हमें यहाँ समझना होगा कि सनातन का अर्थ क्या हैं...? सनातन अर्थात शाश्वत..जो सत्य है...अटल हैं...कल था आज है व सदैव रहेगा...जिसे झुठलाया नहीं जा सकता, वही शाश्वत हैं, सनातन हैं। इसी सनातन से आगे जा अन्य धर्मों का प्रादुर्भ

धर्म

धर्म एक ऐसा शब्द हैं जो सर्वत्र इस संसार मे व्याप्त है, ईश्वर की प्रतेक कृति धर्म के अनुरूप कार्य करती हैं किन्तु आज इस कलयुगी वातावरण मे धर्म के अर्थ को ही विकृत कर दिया गया हैं, आज धर्म अर्थात हिन्दू, मुस्लिम, शिख व ईसाई। इस लेख को लिखने का मेरे मन में तब विचार आया ज़ब मैं अहमदाबाद से भोपाल की यात्रा कर रही थी, सामने की शीट पर बैठा एक लड़का गाना गुन गुनाने लगा "राम राम रे राजा राम, राम राम रे सीता राम " उसके मुख से यह गीत सुनते ही मेरे साथ पिताजी बोले हा हमें जल्द राम राज्य स्थापित करना हैं। ये सुनते ही वह लड़का बोल पड़ा नहीं सर मैं किसी एक धर्म मे विश्वास नहीं रखता मैं तो सेक्युलर(धर्म निरपेक्ष )हूँ ,मेरे मन मे तुरत प्रश्न उठा ऐसा कैसे संभव है कोई व्यक्ति धर्म से अलग कैसे हो सकता हैं, हाँ संभव है वह धर्म के विरुद्ध हो किन्तु धर्म से अलग होना संभव ही नहीं। इसका मुख्य कारण हैं धर्म का गलत अर्थ समझना, आरम्भ में संविधान में 'धर्म निरपेक्ष' शब्द का प्रयोग किया गया किन्तु बाद मे संसोधन कर उसे 'पंथ निरपेक्ष' कर दिया गया। उन्हें समझाने का मन मे विचार आया किन्तु ल

भावनायें

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भावनायें क्या हैं, ये विचारों से कितना पृथक हैं, इनमें ऐसी कौनसी शक्ति हैं जो विचारों को शक्ति शाली बना मनुष्य को लक्ष्य बेधने की क्षमता प्रदान करती हैं। कहा गया हैं विचारों में अनंत शक्ति होती हैं, किन्तु मैंने अनुभव किया की विचार यदि भावना रहित हैं तो शून्य तुल्य हैं। सकारात्मक भावनायें - प्रार्थना, भक्ति, करुणा, प्रेम, संवेदना, क्षमा इत्यादि हैं। नकारात्मक भावनायें -क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष राग, मोह आसक्ति इत्यादि। मनुष्य के लिए यह विडंबना है की नकारात्मक भावनाओं को लाने के लिए मनुष्य को प्रयास नहीं करना होता। वह तो स्वतः इन भावनाओं में लिप्त हो हमें, समाज व सम्पूर्ण वातावरण को हानि पंहुचा रहें हैं। बल्कि प्रार्थना भक्ति जैसे भाव स्वतः ही प्रतेक मनुष्य में सरलता से नहीं मिलते, एवं जो इन्हें विकसित करना चाहते हैं उनके लिए अत्यंत दुष्कर हैं। भावना क्या हैं ? जब इस प्रश्न का उत्तर मैंने टटोलना चाहा तो पाया.... भावना कुछ और नहीं आत्मा की अचूक शक्ति है। चूकि मनुष्य आज अपने कई जन्मों के दूषित संस्करों के चलते आत्मा से अत्यधिक दूर जा चुका हैं। इसलिए उसके लिए आत्मा की पवित्रता सकारात

अहिंसा

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आज मनुष्य कहीं भटक गया हैं, अपने धर्म से अपने लक्ष्य से , स्वयं को मात्र देह मान अहंकार बोध के साथ हिंसा में संलग्न हो ना सिर्फ अपने पतन की ओर अग्रशील हैं बल्कि अपने अहिंसात्मक व्यवहार के कारण समस्त जगत के वातावरण को भी दूषित करने का जिम्मेदार वही हैं। यही कारण है कि धर्म कि रक्षा हेतु अहिंसा का पालन अत्यंत आवश्यक है। इसी कारण कहा गया है - "अहिंसा परमो धर्मः ।। (अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है) वर्तमान में एक बड़ी समस्या है कि कहीं ना कहीं हमने अहिंसा के अर्थ को भी सीमित कर दिया हैं या हम समझ नहीं सकें। सामान्य तौर पर अहिंसा को सिर्फ स्थूल शरीर तक सीमित कर देखा जाता है, कि हमारा बाहारी व्यवहार किसी के साथ हिंसात्मक ना हो, जैसे किसी के साथ मारपीट न करना, कटु वचन न बोलना इत्यादि ,परंतु मनुष्य को इसे प्रकार समझना होगा कि यदि सूक्ष्म शरीर के भीतर प्रभावित ऊर्जा को शुद्ध व पवित्र कर दिया जाये तो स्थूल शरीर से हिंसा का सवाल ही नहीं बनता। योगशैली के अंतर्गत भी "अष्टांग योग" साधना के तहत मनुष्य को सूक्ष्म शरीर में भी अहिंसा का पालन करना होता है अर्थात मन के भीतर आने वाले विचारों

शांति

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आज के कोलहालपूर्ण वातावरण में मनुष्य को जिस कि सबसे अधिक आवश्यकता है, वह 'शांति' हैं। मनुष्य के भीतर विद्यमान आत्मा की यही पुकार है की वह परम शांति को प्राप्त हो। व्यक्ति भगा जा रहा है, क्षण भर के लिए भी उसके पास समय नहीं, इन्द्रियों के वशीभूत हो मनुष्य जिस सुख कि प्राप्ति हेतु भगा जा रहा हैं, वह क्षण भंगूर है, ना सुख है ! ना शांति ! आखिरकार शांति क्या है ? क्या एकांत ही शांति हैं ? नहीं एकांत में मनुष्य मात्र अकेला होता हैं किन्तु शांत नहीं। उसके भीतर गतिशील विचलित, भयभीत, आतीत कि स्मृतियों व भविष्य कि चिंता करता मन एकांत में भी निरंतर गतिशीलता के साथ मनुष्य को अशांत बनाये रखता हैं। जबकि मनुष्य के भीतर विद्यमान आत्मा अशांति से परे जा अपने वास्तविक स्वरुप पूर्ण सचितानंद शांति को प्राप्त करना चाहती है। शांति कुछ और नहीं आत्मसाक्षात्कार की वह अवस्था है, जहाँ सब कुछ ठहर चुका, मन कि गति, विचार इत्यादि। जहाँ कुछ नहीं, वही परम शून्य अवस्था 'शांति' है, वही 'शिव' है। इसी शांति को प्राप्त करने हेतु मनुष्य आत्मसाक्षात्कार कि खोज में निकलता है, घोर तपस्या कर इन्द्रियों