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Showing posts from January, 2023

भावनायें

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भावनायें क्या हैं, ये विचारों से कितना पृथक हैं, इनमें ऐसी कौनसी शक्ति हैं जो विचारों को शक्ति शाली बना मनुष्य को लक्ष्य बेधने की क्षमता प्रदान करती हैं। कहा गया हैं विचारों में अनंत शक्ति होती हैं, किन्तु मैंने अनुभव किया की विचार यदि भावना रहित हैं तो शून्य तुल्य हैं। सकारात्मक भावनायें - प्रार्थना, भक्ति, करुणा, प्रेम, संवेदना, क्षमा इत्यादि हैं। नकारात्मक भावनायें -क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष राग, मोह आसक्ति इत्यादि। मनुष्य के लिए यह विडंबना है की नकारात्मक भावनाओं को लाने के लिए मनुष्य को प्रयास नहीं करना होता। वह तो स्वतः इन भावनाओं में लिप्त हो हमें, समाज व सम्पूर्ण वातावरण को हानि पंहुचा रहें हैं। बल्कि प्रार्थना भक्ति जैसे भाव स्वतः ही प्रतेक मनुष्य में सरलता से नहीं मिलते, एवं जो इन्हें विकसित करना चाहते हैं उनके लिए अत्यंत दुष्कर हैं। भावना क्या हैं ? जब इस प्रश्न का उत्तर मैंने टटोलना चाहा तो पाया.... भावना कुछ और नहीं आत्मा की अचूक शक्ति है। चूकि मनुष्य आज अपने कई जन्मों के दूषित संस्करों के चलते आत्मा से अत्यधिक दूर जा चुका हैं। इसलिए उसके लिए आत्मा की पवित्रता सकारात

अहिंसा

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आज मनुष्य कहीं भटक गया हैं, अपने धर्म से अपने लक्ष्य से , स्वयं को मात्र देह मान अहंकार बोध के साथ हिंसा में संलग्न हो ना सिर्फ अपने पतन की ओर अग्रशील हैं बल्कि अपने अहिंसात्मक व्यवहार के कारण समस्त जगत के वातावरण को भी दूषित करने का जिम्मेदार वही हैं। यही कारण है कि धर्म कि रक्षा हेतु अहिंसा का पालन अत्यंत आवश्यक है। इसी कारण कहा गया है - "अहिंसा परमो धर्मः ।। (अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है) वर्तमान में एक बड़ी समस्या है कि कहीं ना कहीं हमने अहिंसा के अर्थ को भी सीमित कर दिया हैं या हम समझ नहीं सकें। सामान्य तौर पर अहिंसा को सिर्फ स्थूल शरीर तक सीमित कर देखा जाता है, कि हमारा बाहारी व्यवहार किसी के साथ हिंसात्मक ना हो, जैसे किसी के साथ मारपीट न करना, कटु वचन न बोलना इत्यादि ,परंतु मनुष्य को इसे प्रकार समझना होगा कि यदि सूक्ष्म शरीर के भीतर प्रभावित ऊर्जा को शुद्ध व पवित्र कर दिया जाये तो स्थूल शरीर से हिंसा का सवाल ही नहीं बनता। योगशैली के अंतर्गत भी "अष्टांग योग" साधना के तहत मनुष्य को सूक्ष्म शरीर में भी अहिंसा का पालन करना होता है अर्थात मन के भीतर आने वाले विचारों

शांति

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आज के कोलहालपूर्ण वातावरण में मनुष्य को जिस कि सबसे अधिक आवश्यकता है, वह 'शांति' हैं। मनुष्य के भीतर विद्यमान आत्मा की यही पुकार है की वह परम शांति को प्राप्त हो। व्यक्ति भगा जा रहा है, क्षण भर के लिए भी उसके पास समय नहीं, इन्द्रियों के वशीभूत हो मनुष्य जिस सुख कि प्राप्ति हेतु भगा जा रहा हैं, वह क्षण भंगूर है, ना सुख है ! ना शांति ! आखिरकार शांति क्या है ? क्या एकांत ही शांति हैं ? नहीं एकांत में मनुष्य मात्र अकेला होता हैं किन्तु शांत नहीं। उसके भीतर गतिशील विचलित, भयभीत, आतीत कि स्मृतियों व भविष्य कि चिंता करता मन एकांत में भी निरंतर गतिशीलता के साथ मनुष्य को अशांत बनाये रखता हैं। जबकि मनुष्य के भीतर विद्यमान आत्मा अशांति से परे जा अपने वास्तविक स्वरुप पूर्ण सचितानंद शांति को प्राप्त करना चाहती है। शांति कुछ और नहीं आत्मसाक्षात्कार की वह अवस्था है, जहाँ सब कुछ ठहर चुका, मन कि गति, विचार इत्यादि। जहाँ कुछ नहीं, वही परम शून्य अवस्था 'शांति' है, वही 'शिव' है। इसी शांति को प्राप्त करने हेतु मनुष्य आत्मसाक्षात्कार कि खोज में निकलता है, घोर तपस्या कर इन्द्रियों