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Showing posts from December, 2023

विचारों का प्रवाह

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कभी आप ने सोचा है की सोशल मीडिया साइट पर आप को वही कन्टेट दिखाया जाता है जो आप देखना चाहते हैं। उदाहरण यू ट्यूब पर एक दो बार हम जिस प्रकार के विडिओ देखते हैं वैसा या उसे से सम्बंधित कंटेंट हमें परोसा जाने लगता हैं। जैसे आप कोई विशेष व्यक्ति या विषय से सम्बंधित न्यूज़ देखते है तो उसी प्रकार के विडिओ आप की साइट पर देखे जा सकते हैं । बच्चे कार्टून देखते हैं तो उसी प्रकार के विडिओ आने लगते हैं इत्यादि। यहाँ प्रक्रिया केबल यू ट्यूब पर नहीं बल्कि फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि आदि साइट्स पर भी देखने को मिलती हैं। या यूँ कहें की इन साइट्स ने हमारे मन-मस्तिष्क की प्रक्रिया को वर्ल्ड वाइड वेब पर अपनाया। अब आप सोचेंगे ये मैं क्या कह रही हूं। जी ये क्रिया मात्र सोशल साइट तक सिमित नहीं बल्कि विचार करें तो हमारा मन या मस्तिष्क ब्रह्माण्ड से वैसे ही विचार ग्रहण करता है जैसी हमारे सूक्ष्म शरीर की वासनायें होती हैं और यही विचार व्यक्ति का जीवन, चरित्र और आगे का रास्ता तय करते हैं। उदाहरण एक वैज्ञानिक की इच्छा के अनुरूप उस का मस्तिष्क काम करता है, ब्रह्माण्ड में उपस्थित वह विचार ग्रहण करता है और

माया

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माया एक ऐसा शब्द जिसे सरलता से समझना आसान नहीं। आत्मा मनुष्य योनि में जन्म लेती हैं, समाज और परिवार से शिक्षा ग्रहण करते हुए बढ़ती है, पढ़ती-लिखती हैं, नौकरी पाती हैं फिर शादी, परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिक परिश्रम, फिर बच्चों को अच्छी परवरिश देना , पढ़ाना, उनकी शादी करना, नाति पोते हो जाएँ, उनका मुँह देख ले फिर इनके मोह में जकड़ जाना। इस पुरी यात्रा में आत्मा यह विस्मरण कर जाती है की जिस उद्देश्य हेतु जन्म लिया वह वासानाओं, मोह, आसक्ति , अपेक्षा के जाल में फंस जाती है तथा अपना मूलस्वरुप भूल जाती हैं, यही माया हैं। माया क्या हैं :- माया प्रतेक वह वस्तु, भावना, व्यक्ति, स्थान हैं जो आप को स्वा से प्रथक कर मात्र उसके विषय में सोचने हेतु विवश कर दें, भवर जाल में फंसा कर परम तत्व चेतना और अपने मूल से दूर ले जाये माया हैं। धन, स्त्री - पुरुष के प्रति आकर्षण व प्रेम की भावना कुछ और नहीं माया का प्रति रूप हैं, यहाँ तक स्वामी विवेकानंद जी ने तो अपनी चर्चित कृति ज्ञान योग में तो माँ की ममता को भी माया का ही रूप बताया। इसी भवर जाल में उलझा मनुष्य स्वयं को भूल जगत के प्रप

जन्मभूमि

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क्या कभी हमने विचार किया है की इस भौतिक संसार में परिवार और बंधनों में जकड़ा जीवन सांसारिक माया के झांसे में आकर बहुत सीमित हो जाता हैं, जबकि मनुष्य जीवन का उदय असीमित, असीम और बंधनों से मुक्त हो कर उन विचारों और रहस्यों को ज्ञात कर परमतत्व को पाने के लिए हुआ हैं। इन्ही में से एक गहन प्रश्न या विचार है की मनुष्य जीव के रूप में हम एक विशेष स्थान पर ही जन्म क्यों लेते हैं ? जैसे मेरा जन्म म. प्र. के शिवपुरी जिले के ग्राम दिनारा में हुआ, मेरी ही दो बहनों में से एक का जन्म शिवपुरी तो दूसरी का झाँसी हुआ। ऐसा क्यों इनका जन्म भी दिनारा क्यों नहीं हुआ या फिर मेरा जन्म झाँसी या देश के किसी और स्थान या विदेश में क्यों नहीं हुआ ? प्रश्न के उत्तर को ज़ब मैंने खोजा एवं जो उत्तर पाया व अनुभव किया तो जाना इसके पीछे कर्म बंधन और कई जन्मों से चली आ रही संस्कारो की कड़ी हैं, जैसे मैंने जिन माता पिता के परिवार में जन्म लिया उनसे और उनके गहन रिश्तों के साथ मेरे पूर्वजन्मों के संस्कारों और कर्मों की एक कड़ी चली आ रही हैं, जिस कारण मैंने इस परिवार में जन्म लिया। बस इसी प्रकार जिस भूमि पर हमने जन