मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या हैं....??

ज मनुष्य अत्यंत व्यस्त है, उसके पास स्वयं के लिए भी समय नहीं बस भागा जा रहा है... भागा जा रहा है, यह भाग भरा जीवन किस हेतु , किसी को पैसा चाहिए, किसी को मान -सम्मान, कोई उच्च पद पर आसीन होना चाहता है, किसी को सुख की अभिलाषा हैं। इस व्यस्त भरे जीवन में कोई राजनेता बनना चाहता है, तो कोई समाज सेवक, कोई कलाकार तो कोई वैज्ञानिक बन विज्ञान के विभिन्न अनसुलझें प्रश्नों की खोज में लगा है, कोई डॉक्टर बन काम कर रहा हैं, तो कोई सिपाही बन देश की सुरक्षा हेतु सीमाओं पर तैनात हैं।

यदि किसी व्यक्ति से आप पूछों की तुम्हारें जीवन का ध्येय क्या हैं तो ऊपर वर्णित विभिन्न क्षेत्रों में से एक उस व्यक्ति का लक्ष्य भी होगा। तो इस प्रकार व्यक्ति /मनुष्य जीवन का एक मात्र ध्येय इस भौतिक जगत में अपनी अपनी इच्छाओं के अनुरूप इस सांसारिक विषयों को पाना ही क्या उसका अंतिम लक्ष्य हैं..? क्या इस सांसारिक क्षणभंगुर सुख को पाकर या उच्च पद पर आसीन हो या फिर अरबपति बन वह उस परम शांति, आनंद या पूर्ण स्थायीत्व को प्राप्त कर सकता है जो शाश्वत हैं, चिर स्थाई हैं। इसी स्थाईत्व व आनंद को पाने हेतु जाने अनजाने वह अपने लक्ष्य को इन भौतिक क्षेत्रों में खोजता हैं।

यही कारण है कि मनुष्य सदैव विचलित रहता है चाहे वह जो भी प्राप्त कर ले परंतु जब तक वह अपने वास्तविक लक्ष्य को पहचान उस तक नहीं पहुंचाता वह ऐसे ही भागता रहेगा ना सिर्फ इस जन्म बल्कि जन्मो जन्म, अतः पहले उसे यह समझना होगा कि मनुष्य जीवन क्या है..? एवं उसका वास्तविक लक्ष्य क्या है..?

मनुष्य जीवन का महत्व

मनुष्य जीवन के लक्ष्य को समझने से पूर्व मनुष्य जीवन क्या है.,? और उसका महत्व क्या है...? यह समझना अत्यंत आवश्यक है। शास्त्रों में 84 लाख योनियों का वर्णन है, विज्ञान के अनुसार भी लगभग आज इतनी ही योनि अस्तित्व में हैं यह सिद्ध हो चुका हैं। योनि अर्थात माता के जिस अंग से जीवात्मा का जन्म होता है उसे हम योनि कहते हैं। ईश्वर ने सृष्टि में पशु योनि, पक्षियों योनि, कीट योनि, सर्प योनि इत्यादि बनाई इन्हीं में ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति मनुष्य योनि को माना जाता है। शास्त्रों, वेदों व उपनिषदों के अनुरूप जीवात्मा लाखों करोड़ योनियों से यात्रा करते हुए मनुष्यों योनि तक पहुंचती है, मनुष्य योनि का अन्य योनियों से अधिक श्रेष्ठ होने के कई कारण है।

मनुष्य योनि के अन्य योनियों से श्रेष्ठ होने के कारण


अन्य योनियों में जन्मी जीवात्मा उस एक जन्म में चार मूलभूत आवश्यकताओं के वशीभूत हो जीवन व्यतीत करती है ये चार मूलभूत आवश्यकताएं हैं...
• भय
• आहार
• मैथुन
• निद्रा




किसी भी जीव का जीवन में जीवित रहने हेतु 'आहार' अनिवार्य हैं, अन्न जल के अभाव में जीवित रहना संभव ही नहीं किसी भी जीव के लिए...

साथ ही कोई भी जीव निरंतर जागृत अवस्था में नहीं जी सकता इसलिए ईश्वर ने जीव हेतु 'निद्रा'( विश्राम )जैसी मूलभूत आवश्यकताओं को जीवन का अंग बनाया ताकि वह विश्राम के पश्चात पुनः ऊर्जा अर्जित कर क्रियाशील हो सके...

जबकि तीसरी मूलभूत आवश्यकता है 'मैथुन', प्रकृति ने स्वयं के अस्तित्व को बनाये रखने हेतु 'मैथुन इच्छा' को जीव के जीवन में संलग्न किया, इस प्रकार भिन्न भिन्न योनि अपने अस्तित्व को आगे ले जाने की प्रक्रिया में प्रकर्ति को सहयोग करती हैं।

जब जीव इस सर्ष्टि पर जन्म लेता हैं तो स्वत: ही जीवात्मा चाहे कोई भी योनि में हो सरलता से शरीर को नहीं छोड़ना चाहती है तथा प्रकृति का चौथा मूलभूत तत्व 'भय' का आना स्वाभाविक है ... मृत्यु का 'भय' सदैव जीव के साथ रहता है, भय के साथ ही जानवर अपनी रक्षा हेतु आक्रमक स्वभाव का हो जाता है और यह भय ही हैं जो मनुष्य योनि में मनुष्य से जाने अनजाने क्या-क्या कर्म नहीं करवाता।
मानव अपने जीवन का जो भी लक्ष्य निर्धारित करता है वह कहीं ना कहीं जीवन रक्षा हेतु इस भय का ही प्रतिरूप होता है।

अब हम मनुष्य योनि की चर्चा करते हैं, विभिन्न योनियों की भांति मनुष्य योनि भी जीवन की चार मूलभूत इच्छा है( प्राकृतिक तत्वों )के साथ जकड़ी हुई हैं...भय,मैथुन, आहार, निद्रा इसके अतिरिक्त ईश्वर ने मनुष्य को अन्य गुणों से भी सुशोभित किया है जो मनुष्य को अन्य योनियों से श्रेष्ठ बनता हैं।

ज्ञानेंद्रियां- नाक, कान, जिव्हा, त्वचा, आंखें
कर्मेंद्रिय- हाथ, पैर, वाणी, गुदा, लिंग
अंतर चतुष्टय -मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार


इन में से कुछ इन्द्रियाँ अन्य योनियों को उनकी आवश्यकता के अनुरूप ईश्वर ने उन्हें भी प्रदत्त की परंतु बुद्धि के आभाव में वे उनका पूर्ण उपयोग नहीं कर सकते। ये मनुष्य योनि ही है जो इन इंद्रियों को अंतर मुख कर अर्थात भीतर की ओर मोड़कर परम सत्य को प्राप्त कर सकता है जो रहस्य में है, छुपा है, विराट है,अदृश्य हैं, अनंत है, सत्य है, शाश्वत है, परमात्मा है।

मनुष्य को कर्म का अधिकार

इन 8400000 योनियों में मात्र मनुष्य योनि ही ऐसी है जिसे कर्म का अधिकार प्राप्त है, अन्य सभी योनियों अपने कर्मों के भोग हेतु भिन्न भिन्न योनियों में जन्म लेती है और मृत्यु को प्राप्त होती है बल्कि देवयोनि को भी सुख भोगने के पश्चात आगे की यात्रा हेतु पुनः मनुष्य योनि में जन्म लेना होता है ताकि वह अपने कर्म मार्ग से आगे का रास्ता बना सके।
यह मनुष्य है जो अपने कर्मों को माध्यम बना, विचारों को दिशा देकर, स्वयं के संस्कारों में परिवर्तन कर कुछ भी पाने में सामर्थ्य है, यही कारण है कि 'नर से नारायण' तक की यात्रा मनुष्य जीवन से ही होकर गुजरती है।

अब हम अपने मूल प्रश्न पर आते हैं मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है?? ऊपर हमने जो मनुष्य जीवन व उसके महत्व की चर्चा की उत्तर उसी में व्याप्त है, मनुष्य भागा जा रहा है किसके पीछे अन्य योनियों की भांति 'भय 'से छुटकारा पाने हेतु, 'आहार 'जीविकोपार्जन हेतु, 'मैथुन' वंश परंपरा को आगे ले जाने के लिए, बस इसी के इर्द-गिर्द मनुष्य का जीवन गोते खा रहा है वह इन्हीं में से एक को माध्यम बनाकर अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करता है वह पुनः दौड़ में शामिल हो जाता है।

अतः विचारणीय बिंदु है कि ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति सिर्फ इन चार मूलभूत आवश्यकता तक ही सीमित है क्योंकि इन मूलभूत आवश्यकताओं के साथ तो पशु भी जीवन व्यतीत करता है, यदि मनुष्य जीवन का लक्ष्य इन्हीं बिंदुओं तक सीमित रेह जाता है तो यह जीवन पशु तुल्य है, अर्थात पशु व मनुष्य में कोई भेद नहीं ये कटु सत्य हैं।

जरा गहनता से विचार करें कि हम जो भी अपने जीवन में प्राप्त करना चाहते हैं क्या वह स्थाई है? क्या उसे प्राप्त कर यह अनुभव किया जा सकता है कि बस अब मैं परिपूर्ण हूं, किसी और वस्तु की कोई अभिलाषा नहीं रही, परंतु हम जो भी अपने जीवन में होना चाहते हैं या पाना चाहते हैं व स्थाई नहीं अतः हमारा ये मनुष्य जीवन पूर्णत्व को पाने की ओर इशारा करता है जब तक हम उस पूर्णत्व को प्राप्त नहीं कर लेते यह जन्म मृत्यु का क्रम चलता रहता है। उदाहरण एक संस्कृत श्लोक के माध्यम से समझें...

" आकाशात पतितं तायें यथा गच्छति सागरं, सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रति गच्छति "

जिस प्रकार वर्षा होती है चाहे वर्षा कन्याकुमारी में हो, मुंबई में हो, शिलांग में कहीं भी हो.. अतः उस वर्षा की प्रत्येक बूंद का महासागर में ही विलीन होना ही उसकी नियति है, उस प्रक्रिया में कई बार वह बून्द वाष्प बन पुनः आकाश तक पहुंच सकती है। मान लो मध्य प्रदेश में कहीं जबलपुर के पास, इंदौर के पास बून्द गिरी और फिर महासागर तक वापस पहुंचने की यात्रा में वह कई बार सूखेगी और बरसेगी। ऐसे सैकड़ों बार हो सकता है किंतु अंततः उसे चरम बिंदु महासागर ही में पहुंचना है, वास्तव में मनुष्य जीवन का उद्देश व्यक्तिगत कुछ भी नहीं हैं, जीवन का उद्देश्य सभी के लिए एक सामान्य है, इस मानव जीवन की नियति सबके लिए एकसी हैं।
 
आज हर व्यक्ति अपने अपने जीवन की वर्तमान अवस्था के अनुसार पूर्णत्व की इस उत्कंठा को महसूस करता है, मनुष्य को किसी भी बात में अपूर्णता पसंद नहीं हैं वह सभी प्रकार की अपूर्णतः से ऊपर उठकर पूर्णत्व की ओर जाने का प्रयास करता है अतः मनुष्य का लक्ष्य पूर्णतत्व को प्राप्त करना है।
इस प्रकार मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य शाश्वत व पूर्णत्व को प्राप्त करना हैं अन्य सांसारिक व भौतिक लक्ष्य तो मात्र वर्षा की बूंदों की तरह है जो कभी नदी में, कभी पहाड़ में, कभी जलाश्य में तो कभी नहर में गिरती है अनेकों बार वाष्प बनती है परंतु अंततः महासागर तक पहुंच उसमें विलीन हो जाना ही उसका परम लक्ष्य हैं।


Comments

Popular posts from this blog

चंद्रयान -3

मन व उसके आयाम...