मन व उसके आयाम...
मन के बारे में हम अक्सर सुनते हैं की मन बड़ा चंचल है, स्थिर नहीं, इसमें ठहराव नहीं, इसे आराम नहीं...
इस पल घर के विषय में विचार करता है तो दूसरे पल दुनिया का विचार, इसे एक स्थान या एक विचार पर रहना पसंद नहीं इसलिए इसे बंदरनुमा मन भी कहा जाता है। बंदरनुमा क्योंकि बंदर एक डाल पर इस पल और दूसरी डाल पर दूसरे पल होता है उसी प्रकार मनुष्य का मन भी कभी स्थिर नहीं रहता है।
किसी भी व्यक्ति से जब हम बात करते हैं या फिर हम जब एकांत में स्वयं से ही बात करते हैं तो हमें यह ज्ञात भी नहीं कि अनेकों बार एक शब्द को प्रयोग में लाते हैं और वह शब्द है 'मन'।
आज मेरा 'मन' कुछ चटपटा खाने का है, 'मन' बहुत दुखी है, 'मन' विचलित है 'मन'आज अत्यधिक प्रसन्न है इत्यादि इत्यादि । प्रत्येक व्यक्ति 'मन शब्द' को प्रयोग में लाता हैं, मनुष्य मन की शक्ति के प्रभाव में काम करता है परंतु इस बात से अनभिज्ञ है कि आखिरकार ये "मन है क्या"??
जब हम कहते हैं कि 'मन' आज मेरा अधिक सोने का हैl तो इस पर विचार करे की 'मेरा' सोने का मन हैं... 'मेरा'... 'मैं' मन नहीं...
एक सरल उदाहरण के माध्यम से हम समझते हैं...
यह 'मेरी कार 'है... कार मेरी है 'मैं 'स्वयं कार नहीं... उसी प्रकार यह कहना कि 'मेरा' आज सोने का अधिक 'मन 'है तात्पर्य यह दर्शाता है कि 'मन'और 'मेरे' वास्तविक स्वरूप में भिन्नता है.. ध्यान से अवलोकन पर यह स्पष्ट दिखता है कि 'आप 'और 'आपका मन' दोनों भिन्न भिन्न है, तो प्रश्न उठता है कि जब मन व हमारे वास्तविक स्वरूप में इतनी भिन्नता है तो हम इस मन के इतने गुलाम क्यों ?? इसे ज्ञात करने से पूर्व मन को समझना होगा...
• मन क्या है ?
• क्या यह शरीर के किसी अंग में अवस्थित है ?
• क्या मन व शरीर एक दूसरे के पूरक है..?
• मन का स्वरूप क्या है
• मन को स्थिर करने हेतु उपाये ?
मन क्या है हमें इसे ज्ञात करने से पूर्व यह ज्ञात करना होगा की शरीर में कहाँ स्थित है ?.. ह्रदय व मस्तिष्क की भांति मन शरीर के किसी भाग में स्थित नहीं, ये अत्यंत सूक्ष्म है यही कारण है कि विज्ञान भी आज तक नहीं जान सका कि यह शरीर में कहां स्थित है.. किन्तु मन अध्यात्म में अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान रखता है तथा अत्यंत सूक्ष्म विषय है... हमारी चार अंतः करण इंद्रियों में मन ,बुद्धि, चित्त, अहंकार.. में से एक मन है, जो की सूक्ष्म शरीर को बनाने में बड़ा योगदान देता हैं, पंच भूतों से निर्मित स्थूल शरीर तो प्रारब्ध पूरा होते ही पंचतत्व में विलीन हो जाता है, परंतु मन से निर्मित सूक्ष्म शरीर अनेकों अनेक जन्म लंबी यात्रा करता है ना सिर्फ इस लोक में बल्कि अनेकों लोको में गमन करता है, एक योगी अपने को सूक्ष्म शरीर में परिवर्तित कर लोक लोकअंतरो की यात्रा करता है। जो की विज्ञान के लिए अभी भी अकल्पनीय हैं।
विचार:- निरंतर सोच विचार करते हुए कल्पनाओं में रहना।
भावनाएं.. मन के भीतर प्रेम, ईर्ष्या, दया, करुणा, मोह जैसे भावों का उठना।
आवेग.. मन के अंदर उठने वाले तीव्र भाव आवेग कहलाते हैं जैसे क्रोध।
संस्कार :- किसी भी भावों के पश्चात उसकी छाप मन पर छूट जाना संस्कार कहलाती है।
संकल्प :- कुछ करने का दृढ़ निश्चय मन में करना संकल्प कहलाता है।
विकल्प :- अन्य रास्तों की खोज में लगे रहना विकल्प हैं।
मन व शरीर
यह मन ही है जो इस मायावी संसार में हमें बांधे हुए हैं, मन को समझने से पूर्व यह भी समझना होगा कि 'मैं न मन हु' 'न ही शरीर' मेरा वास्तविक अस्तित्व इनसे विलग हैं किन्तु शरीर और मन दोनों एक दूसरे से पूर्णता गुथे हुए हैं, 'मैं शरीर हु' इसका बोध ही मन के अस्तित्व का कारण है, यदि शरीर नहीं तो मन स्वतः ही समाप्त हो जाएगा...
यह विचार करने की गहन अवश्यकता हैं की शरीर से ही जुड़े विचार , कल्पना, भाव, संस्कारों का समूह 'मन' हैं। मन में उठे सभी विचार इस 'मैं' से ही तो संबंधित है। हम 'मैं' के ही अतीत को लेकर गिलानी करते हैं, 'मैं 'के ही भविष्य को लेकर चिंतित होते हैं, इस 'मैं' से ही जुड़े रिश्ते, नाते, मित्रों से हुई बातचीत की कल्पनाओं में उलझे रहते हैं। यदि शरीर का बोध नहीं तो यह 'मन' भी नहीं।
मन का स्वरूप
आध्यात्मिक जगत में मन जितना सूक्ष्म है उतना गहन और विस्तृत भी, इसके अनेक स्वरुप है किंतु मुख्यत: ये चेतन मन और अवचेतन मन के रूप में जाना जाता है। साधारण शब्दों में मनुष्य की जागृत अवस्था की मानसिक क्रियांए चेतन मन व स्वप्न अवस्था की स्थिति अवचेतन मन कहलाती है। इस जन्म के अब तक की संग्रहित की गई स्मृतियां तथा इस जन्म के गहरे संस्कार व पूर्व जन्मों के संस्कार अवचेतन मन में संग्रहित रहते हैं व स्थिति आने पर समय-समय पर दृष्टिगोचर होते हैं। चेतन मन के विषय में हम ऊपर विस्तृत में बात कर चुके हैं.. इसलिए हम एक उदाहरण के माध्यम से अवचेतन मन की क्रियाओं को समझेंगे..
जैसे जब कभी हम कुछ नया सीखना चाहते हैं तो उसका बार-बार अभ्यास करना होता है और जैसे ही हम अभ्यास में निपूर्ण हो जाते हैं तो वह कार्य स्वतः ही होने लग जाता है, क्योंकि उस कार्य को करने की प्रक्रिया हमारे अवचेतन मन तक पहुंच चुकी होती है और हम कहते हैं इस कार्य हेतु अब हम दक्ष हैं।
उदाहरण जब कोई प्रथम बार कार चलाना सीखता है तो उसे पूरे होश के साथ किलीज ,गियर, ब्रेक व एक्सीलेटर का ध्यान रखना होता है, परंतु जैसे ही वह अभ्यास में निपुण हो जाता है तो स्वत: ही सभी ब्रेक, एक्सीलेटर, गियर को दक्षता से नियंत्रण कर कार चलाने लगता है.. क्योंकि उसकी क्रियाएं अब अवचेतन मन तक पहुंच गई है, तथा अवचेतन मन स्मृतियों को संग्रहित कर बेहतर तरीके से काम करने हेतु जाना जाता है....
मन के ठहराव हेतु
• मन को एक विचार, वस्तु पर एकाग्र करने अभ्यास करें।
• मन की बिखरी हुई मानसिक किरणों को एकत्रित कर ईश्वर पर केंद्रित करें।
• मन की एकाग्रता के लिए 'त्राटक' जैसी क्रियाओं का अभ्यास आवश्यक।
• मन का श्वास के साथ सीधा संबंध है अतः प्राणायाम व हठ योग के आसन मन को शांत करने में सहायक है।
• सात्विक आहार मन को नियंत्रण करता है (शास्त्रों का कथन है जैसा अन्न वैसा मन)।
हमारे गुरुदेव कहते हैं हम सब मन के गुलाम हैं और इस बात को भूल जाते हैं कि मन मेरे वास्तविक स्वरूप से पूर्णतः भिन्न हैं, हमें मन को ठहराना होगा व संसार से अलग कर अपना बनाना होगा, यह तभी संभव है जब आप मन में उठने वाले प्रत्येक विचार,भाव,आवेग व कल्पनाओं के प्रति पूर्ण रूप से सजग हो..उसे स्वयं से पृथक कर देखें, इसका निरंतर अभ्यास ही मन को स्थिर करने में सहायक है।
इस पल घर के विषय में विचार करता है तो दूसरे पल दुनिया का विचार, इसे एक स्थान या एक विचार पर रहना पसंद नहीं इसलिए इसे बंदरनुमा मन भी कहा जाता है। बंदरनुमा क्योंकि बंदर एक डाल पर इस पल और दूसरी डाल पर दूसरे पल होता है उसी प्रकार मनुष्य का मन भी कभी स्थिर नहीं रहता है।
किसी भी व्यक्ति से जब हम बात करते हैं या फिर हम जब एकांत में स्वयं से ही बात करते हैं तो हमें यह ज्ञात भी नहीं कि अनेकों बार एक शब्द को प्रयोग में लाते हैं और वह शब्द है 'मन'।
आज मेरा 'मन' कुछ चटपटा खाने का है, 'मन' बहुत दुखी है, 'मन' विचलित है 'मन'आज अत्यधिक प्रसन्न है इत्यादि इत्यादि । प्रत्येक व्यक्ति 'मन शब्द' को प्रयोग में लाता हैं, मनुष्य मन की शक्ति के प्रभाव में काम करता है परंतु इस बात से अनभिज्ञ है कि आखिरकार ये "मन है क्या"??
जब हम कहते हैं कि 'मन' आज मेरा अधिक सोने का हैl तो इस पर विचार करे की 'मेरा' सोने का मन हैं... 'मेरा'... 'मैं' मन नहीं...
एक सरल उदाहरण के माध्यम से हम समझते हैं...
यह 'मेरी कार 'है... कार मेरी है 'मैं 'स्वयं कार नहीं... उसी प्रकार यह कहना कि 'मेरा' आज सोने का अधिक 'मन 'है तात्पर्य यह दर्शाता है कि 'मन'और 'मेरे' वास्तविक स्वरूप में भिन्नता है.. ध्यान से अवलोकन पर यह स्पष्ट दिखता है कि 'आप 'और 'आपका मन' दोनों भिन्न भिन्न है, तो प्रश्न उठता है कि जब मन व हमारे वास्तविक स्वरूप में इतनी भिन्नता है तो हम इस मन के इतने गुलाम क्यों ?? इसे ज्ञात करने से पूर्व मन को समझना होगा...
• मन क्या है ?
• क्या यह शरीर के किसी अंग में अवस्थित है ?
• क्या मन व शरीर एक दूसरे के पूरक है..?
• मन का स्वरूप क्या है
• मन को स्थिर करने हेतु उपाये ?
मन क्या है हमें इसे ज्ञात करने से पूर्व यह ज्ञात करना होगा की शरीर में कहाँ स्थित है ?.. ह्रदय व मस्तिष्क की भांति मन शरीर के किसी भाग में स्थित नहीं, ये अत्यंत सूक्ष्म है यही कारण है कि विज्ञान भी आज तक नहीं जान सका कि यह शरीर में कहां स्थित है.. किन्तु मन अध्यात्म में अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान रखता है तथा अत्यंत सूक्ष्म विषय है... हमारी चार अंतः करण इंद्रियों में मन ,बुद्धि, चित्त, अहंकार.. में से एक मन है, जो की सूक्ष्म शरीर को बनाने में बड़ा योगदान देता हैं, पंच भूतों से निर्मित स्थूल शरीर तो प्रारब्ध पूरा होते ही पंचतत्व में विलीन हो जाता है, परंतु मन से निर्मित सूक्ष्म शरीर अनेकों अनेक जन्म लंबी यात्रा करता है ना सिर्फ इस लोक में बल्कि अनेकों लोको में गमन करता है, एक योगी अपने को सूक्ष्म शरीर में परिवर्तित कर लोक लोकअंतरो की यात्रा करता है। जो की विज्ञान के लिए अभी भी अकल्पनीय हैं।
मन क्या है
मन कुछ और नहीं आत्मा की शक्ति है मन के माध्यम से ही ईश्वर ने स्वयं को ब्राह्मड के रूप में प्रकट किया एवं उस ब्रह्मांड का ही छोटा स्वरूप मनुष्य का मन कहलाता है...
मन मनुष्य के ही विचारों, भावनाओं,कल्पनाओं,आवेगो, संस्कारों, संकल्प, विकल्प का समूह है। यह निरंतर चिंतन मनन करता हुआ शब्दों के जाल में उलझा रहता है|
मन कुछ और नहीं आत्मा की शक्ति है मन के माध्यम से ही ईश्वर ने स्वयं को ब्राह्मड के रूप में प्रकट किया एवं उस ब्रह्मांड का ही छोटा स्वरूप मनुष्य का मन कहलाता है...
मन मनुष्य के ही विचारों, भावनाओं,कल्पनाओं,आवेगो, संस्कारों, संकल्प, विकल्प का समूह है। यह निरंतर चिंतन मनन करता हुआ शब्दों के जाल में उलझा रहता है|
विचार:- निरंतर सोच विचार करते हुए कल्पनाओं में रहना।
भावनाएं.. मन के भीतर प्रेम, ईर्ष्या, दया, करुणा, मोह जैसे भावों का उठना।
आवेग.. मन के अंदर उठने वाले तीव्र भाव आवेग कहलाते हैं जैसे क्रोध।
संस्कार :- किसी भी भावों के पश्चात उसकी छाप मन पर छूट जाना संस्कार कहलाती है।
संकल्प :- कुछ करने का दृढ़ निश्चय मन में करना संकल्प कहलाता है।
विकल्प :- अन्य रास्तों की खोज में लगे रहना विकल्प हैं।
मन व शरीर
यह मन ही है जो इस मायावी संसार में हमें बांधे हुए हैं, मन को समझने से पूर्व यह भी समझना होगा कि 'मैं न मन हु' 'न ही शरीर' मेरा वास्तविक अस्तित्व इनसे विलग हैं किन्तु शरीर और मन दोनों एक दूसरे से पूर्णता गुथे हुए हैं, 'मैं शरीर हु' इसका बोध ही मन के अस्तित्व का कारण है, यदि शरीर नहीं तो मन स्वतः ही समाप्त हो जाएगा...
यह विचार करने की गहन अवश्यकता हैं की शरीर से ही जुड़े विचार , कल्पना, भाव, संस्कारों का समूह 'मन' हैं। मन में उठे सभी विचार इस 'मैं' से ही तो संबंधित है। हम 'मैं' के ही अतीत को लेकर गिलानी करते हैं, 'मैं 'के ही भविष्य को लेकर चिंतित होते हैं, इस 'मैं' से ही जुड़े रिश्ते, नाते, मित्रों से हुई बातचीत की कल्पनाओं में उलझे रहते हैं। यदि शरीर का बोध नहीं तो यह 'मन' भी नहीं।
मन का स्वरूप
आध्यात्मिक जगत में मन जितना सूक्ष्म है उतना गहन और विस्तृत भी, इसके अनेक स्वरुप है किंतु मुख्यत: ये चेतन मन और अवचेतन मन के रूप में जाना जाता है। साधारण शब्दों में मनुष्य की जागृत अवस्था की मानसिक क्रियांए चेतन मन व स्वप्न अवस्था की स्थिति अवचेतन मन कहलाती है। इस जन्म के अब तक की संग्रहित की गई स्मृतियां तथा इस जन्म के गहरे संस्कार व पूर्व जन्मों के संस्कार अवचेतन मन में संग्रहित रहते हैं व स्थिति आने पर समय-समय पर दृष्टिगोचर होते हैं। चेतन मन के विषय में हम ऊपर विस्तृत में बात कर चुके हैं.. इसलिए हम एक उदाहरण के माध्यम से अवचेतन मन की क्रियाओं को समझेंगे..
जैसे जब कभी हम कुछ नया सीखना चाहते हैं तो उसका बार-बार अभ्यास करना होता है और जैसे ही हम अभ्यास में निपूर्ण हो जाते हैं तो वह कार्य स्वतः ही होने लग जाता है, क्योंकि उस कार्य को करने की प्रक्रिया हमारे अवचेतन मन तक पहुंच चुकी होती है और हम कहते हैं इस कार्य हेतु अब हम दक्ष हैं।
उदाहरण जब कोई प्रथम बार कार चलाना सीखता है तो उसे पूरे होश के साथ किलीज ,गियर, ब्रेक व एक्सीलेटर का ध्यान रखना होता है, परंतु जैसे ही वह अभ्यास में निपुण हो जाता है तो स्वत: ही सभी ब्रेक, एक्सीलेटर, गियर को दक्षता से नियंत्रण कर कार चलाने लगता है.. क्योंकि उसकी क्रियाएं अब अवचेतन मन तक पहुंच गई है, तथा अवचेतन मन स्मृतियों को संग्रहित कर बेहतर तरीके से काम करने हेतु जाना जाता है....
मन के ठहराव हेतु
• मन को एक विचार, वस्तु पर एकाग्र करने अभ्यास करें।
• मन की बिखरी हुई मानसिक किरणों को एकत्रित कर ईश्वर पर केंद्रित करें।
• मन की एकाग्रता के लिए 'त्राटक' जैसी क्रियाओं का अभ्यास आवश्यक।
• मन का श्वास के साथ सीधा संबंध है अतः प्राणायाम व हठ योग के आसन मन को शांत करने में सहायक है।
• सात्विक आहार मन को नियंत्रण करता है (शास्त्रों का कथन है जैसा अन्न वैसा मन)।
हमारे गुरुदेव कहते हैं हम सब मन के गुलाम हैं और इस बात को भूल जाते हैं कि मन मेरे वास्तविक स्वरूप से पूर्णतः भिन्न हैं, हमें मन को ठहराना होगा व संसार से अलग कर अपना बनाना होगा, यह तभी संभव है जब आप मन में उठने वाले प्रत्येक विचार,भाव,आवेग व कल्पनाओं के प्रति पूर्ण रूप से सजग हो..उसे स्वयं से पृथक कर देखें, इसका निरंतर अभ्यास ही मन को स्थिर करने में सहायक है।
एक गूढ़ किंतु सर्वथा महत्वपूर्ण आयाम , मन ही है जो हमको इस मनुष्यमय जीवन के मायाजाल से जकड़ा रखता है, वाह।। आप लेखक ने बखूबी इसे परिभाषित किया और सउदाहरण समझाया भी। अत्यंत रोचक एवं ज्ञान वर्धक लेख। बेहद सराहनीय।
ReplyDeleteसह्रदय धन्यवाद 🙏🙏🙏
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