अष्टांग योग साधना (धारणा, ध्यान, समाधि )


 अष्टांग योग साधना के अंतिम पढ़ाव में हम अंतरंग साधना के अंतर्गत आने वाले धारणा, ध्यान व समाधि को जानेंगे। पूर्व के लेखों में हमने जाना किस प्रकार साधक स्वयं के चित्त को शुद्ध कर आसन, प्राणायाम व प्रत्याहार का अभ्यास करते हुए चित्त की चंचलता को स्थिरता में ला अष्टांग योग के उच्चोत्तर अंग धारणा, ध्यान व समाधि की ओर अग्रशील होता एवं इन्हें सिद्ध करते हुए जीवन और योग के परम लक्ष्य समाधि को प्राप्त कर सकता हैं। 


धारणा...

अंतरंग साधना में धारणा ध्यान के पूर्व की तैयारी हैं, प्रत्याहार में हमने जाना इन्द्रियों के विषयों को अंतर्मुख करना प्रत्याहार हैं एवं इस अवस्था किसी एक विषय को ध्येय बनाकर मन को एकाग्र करने की अवस्था 'धारणा' हैं। धारणा संस्कृत के 'धृ' धातु से बना हैं जिसका अर्थ होता हैं - 'आधार व नीव '। धारणा अर्थात 'ध्यान की नीव' व 'ध्यान की आधारशिला' हैं।
 
महर्षि पतंजलि धारणा के स्वरुप को स्पष्ट करते हुए बताते हैं -

देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ॥ ३.१॥‌

चित्तस्य - चित्त को

देश - आंतरिक /शरीर स्थित किसी स्थान (नाभि, हृदय या माथे) पर

बन्ध:- बाँधना अर्थात ठहराना या केन्द्रित करना

धारणा- धारणा होती है ।

महर्षि ने भी मन को एकाग्र करने की प्रक्रिया को ही धारणा कहाँ हैं। मन या चित्त को किसी विचार व स्थान में बांधकर रखने की प्रक्रिया ही 'धारणा' हैं। यहां देश से तात्पर्य चित्त को किसी बाहरी अथवा आंतरिक विषय में बांधे रखना...
 
बाहरी(स्थूल विषय)..
जैसे दिवार पर एक कला बिंदु, मोमबत्ती की लौ, चमकता हुआ तारा, चन्द्रमा, ॐ का चित्र, भगवान शिव, राम, कृष्ण, देवी अथवा अपने इष्टदेवता के चित्र के सामने रख कर खुली आँखों से ध्यान करें।
 
आंतरिक (सूक्ष्म विषय )..
अपने इष्टदेवता के चित्र के सामने बैठ जाएं और आँखे बंद कर ले, अपने इष्टदेवता का मानसिक चित्र अपनी दोनों भौहों के मध्य अथवा अपने हृदय में, मूलाधार में, अनाहत अथवा अन्य किसी आंतरिक चक्र पर धारण करें।
धारणा को और सरल माध्यम से समझने हेतु एक वाक्यंश बढ़ा ही सुन्दर हैं...
 
"एक बार एक संस्कृत के विद्वान ने कबीर से पूछा --आप अभी क्या कर रहें हैं..? उन्होंने उत्तर दिया --"पंडितजी, मैं मन को सांसारिक विषयों से खींच कर भगवान के चरण कमलों पर एकाग्र कर रहा हूँ। "

 कितनी सहजता के साथ संत कबीर ने धारणा को चंद शब्दों में व्यक्त किया...

स्वामी विवेकानंद कहते हैं...
 
धारणा का अर्थ है मन को देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थान में धारण या स्थापना करना, मन को स्थान विशेष में धारण करने का अर्थ है मन को शरीर के अन्य स्थानों से हटाकर किसी एक विशेष अंग में बलपूर्वक लगाए रखना।

धारणा का महत्व...

चाहे सांसारिक व्यक्ति हो या फिर योगमय हो जाने की चाह रखने वाला साधक, धारणा दोनों के लिए परम आवश्यक है। जहाँ सांसारिक व्यक्ति अपने जीवन में धारणा को शामिल कर उसे सफल बना सकता हैं तो वही साधक धारणा कर जीवन को योगमय बना उसे सार्थक सिद्ध कर सकता हैं।

* किसी भी कार्य को शीघ्र व कुशलता से करने हेतु धारणा सहायक हैं इसे एक सामान्य उदाहरण से समझें यदि ताले पर चाबी निश्चित स्थान पर लगा कर ना घुमाई जाये तो ताला कभी नहीं खुलेगा, ताले पर चाबी लगा कर जो खोलने और बंद करने की प्रक्रिया के दौरान एक पल या क्षण की एकाग्रता हैं यहीं 'धारणा' हैं। इसी प्रकार धारणा को जीवन में शामिल कर प्रत्येक कार्य को अति शीघ्र व कुशलता के साथ पूर्ण किया जा सकता हैं।

* वहीं साधक हेतु ध्यान व समाधि तक पहुंचने हेतु धारणा नित्यांत आवश्यक हैं।

* उत्तम धारणा करने वाले की अर्जन क्षमता अच्छी होती हैं तथा वह कम समय में अधिक कार्य कर सकता हैं।

*मन की बिखरी हुई शक्ति को केंद्रित करने हेतु धारणा करना अत्यंत आवश्यक हैं।

 ध्यान...

ध्यान अष्टांग योग साधना की सातवीं सीढ़ी हैं, एवं साधक को योग की अंतिम अवस्था समाधि तक पहुंचने हेतु ध्यान को सिद्ध करना नितांत आवश्यक हैं। ध्यान का अर्थ अत्यंत व्यापक व गेहन हैं केवल आंखे बंद करके कुछ समय के लिए बैठ जाना ध्यान नहीं।

"ध्यान अर्थात होशपूर्णता के साथ जीवन जीने की कला ध्यान हैं, मन का प्रति पल झण सजग रहना ध्यान हैं, मन का एकाग्र हो जाना ध्यान हैं, साक्षी भाव के साथ जीवन यापन करना ध्यान हैं, दृष्टा भाव के साथ संसार व स्वयं को देखना ध्यान हैं। "

"ध्यानं निर्विषयं मनः " --मन की वह स्थिति जहाँ ध्यान में कोई विषय अथवा विषय के विचार नहीं होते।
 
महर्षि पतंजलि कहते हैं --

"तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानं "--

दृष्टि एवं विचार का निरंतर प्रवाह ध्यान हैं जैसे नदी में जल का प्रवाह होता हैं, उसी प्रकार ध्यान में एक विषय का निरंतर प्रवाह होता हैं। ईश्वरीय चेतना के निरंतर प्रवाह को बनाये रखना ध्यान हैं, इसमें सभी सांसारिक विचार मन में आना बंद हो जाते हैं।

ध्यान का महत्व..

जब साधक साधना के मार्ग को चुन आगे बढ़ता हैं तो उसे स्वयं को जानने की उत्सुकता के साथ ही वह ईश्वर को जानने, समझने व पहचाने की अभिलाषा भी रखता हैं, अतः साधक हेतु ध्यान..
* आत्म साक्षात्कार के मार्ग बनता हैं,
* आत्म साक्षात्कार मुक्ति का मार्ग हैं,
* मुक्ति से मोक्ष का रास्ता प्रसस्त होता हैं,
* मोक्ष को पाना साधक का धर्म हैं।

. ईश्वर द्वारा प्रदान किया गया ये मानव शरीर समुच्चय शक्तियों का धनी हैं, इन शक्तियों के उजागर का एक मात्र माध्यम ध्यान हैं।
 
. ध्यान एक विज्ञान है जो हमारे शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास में हमारी सहायता कर हमें हमारे सम्पूर्ण अस्तित्व का स्वामी बनाने में सक्षम हैं।
 
. ध्यान के द्वारा सूक्ष्म मन के अनुभव स्पष्ट होने लगते है जैसे अवचेतन मन की प्रक्रिया से जुड़े रहस्यों का प्रकट होना।
 
. जैसे जैसे हम अपने भीतर सूक्ष्म अनुभवों को जानने में सक्षम होते हैं, अंतर्मुखी होते चले जाते हैं, यह आत्म साक्षात्कार की अवस्था है जो ध्यान का परिणाम है
 
. स्वामी विवेकानंद ज्ञान प्राप्ति में ध्यान की महत्वता का वर्णन करते हुए कहते हैं, समस्त ज्ञान ध्यान का ही फल है
 
. ज्ञान एक ऐसा अभ्यास है जिसके माध्यम से साधक की अंतर्दृष्टि विकसित होती है और उसे विवेक ज्ञान की प्राप्ति होती है

समाधि...

"समाधि समय का विराम
काल की सीमा रेखा है,
यहीं आकर समय रुक जाता है यह यात्रा है भीतर की "

समाधि न सिर्फ अष्टांग योग साधना की परम अवस्था है बल्कि सभी प्रकार की साधनाओं का चरम बिंदु हैं, मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य उस विराट में लीन हो जाना हैं एवं उस विराट में लीन हो जाना ही समाधिस्त अवस्था हैं। अष्टाँग योग साधना में जहाँ यम नियम शरीर को शुद्ध करने की प्रक्रिया हैं तो वही आसन प्राणायाम, प्रत्याहार मन को अन्तर्मुख करने हेतु तथा धारणा जहाँ मन को एकाग्र करती हैं तो वहीं ध्यान 'मन का ठहराव' हैं तथा जहाँ मन का आत्मा में विलय हो जाये यहीं स्थिति 'समाधि' हैं।

जिस प्रकार नदी विभिन्न मार्गों की यात्रा करते हुए अपने गंतव्य सागर में जा अपना अस्तित्व भुला उसी में समा जाती हैं उसी प्रकार साधक साधना के विभिन्न पढ़ावो को पार करता हुआ मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य समाधि को प्राप्त हो उस विराट में एकात्म हो जाता हैं।
 
समाधि का अर्थ...
 
ध्यान की पराकाष्ठा, योग की अंतिम स्थिति, जीवात्मा परमात्मा के मिलन की अवस्था इत्यादि।
 
योग दर्शन के अनुसार -

समाधियते चित्तमन्नेनोति समाधि। 
 
अर्थात समस्त वृतियों के निरोध होने पर चित्त की स्थिर और उत्कृष्ट अवस्था का नाम समाधि हैं।
ध्यान की परिपक्व अवस्था ही समाधि, दीर्घ काल तक ध्यान में अभ्यास रत रहने में जब उसमें परिपूर्णता आ जाती हैं यहीं ध्यान की पराकाष्ठा समाधि हैं। अतः समाधि ध्यान की ही अगली अवस्था हैं।
 
महर्षि पतंजलि कहते हैं --

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः ॥ ३.३॥ 
तदेव- तब वह ध्यान ही

अर्थमात्र- केवल उस वस्तु के अर्थ या स्वरूप का

निर्भासं- आभास मात्र करवाने वाला

स्वरूपशून्यम् - अपने स्वरूप से शून्य हुआ

इव - जैसा

समाधिः - समाधि होती है ।


जब योगी स्वयं के स्वरूप को भूलकर केवल ध्येय (जिसका ध्यान कर रहा है) में ही लीन हो जाता है, तब योगस्थ साधक की वह अवस्था-विशेष 'समाधि' कहलाती है ।

ध्यान और समाधि में अंतर..
 
ध्यान और समाधि में मुख्य अंतर यह हैं की ध्यान की अवस्था में साधक को ये पूर्णतः भान होता हैं की वह ध्यान कर रहा हैं और अपने ध्येय पर ध्यानस्त हैं परंतु समाधि की अवस्था में ध्यान और ध्येय के मध्य का भेद मिट जाता हैं और ध्याता 'मैं' की सत्ता को भुलाकर ध्येय से एकाकार हो जाता हैं। इस प्रकार समाधि आत्मा विस्मृति की अवस्था हैं। इस अवस्था में समस्त चित्र वृत्तियों का निरोध हो जाता है जो योग का लक्ष्य भी है--" योग चित्र वृत्ति निरोधा"
 
समाधि के प्रकार..
 
योग दर्शन में समाधि मुख्यतः दो प्रकार की हैं..
 
• सम्प्रज्ञात समाधि..
यह ध्यान से समाधि तक पहुंचने की प्रथम अवस्था हैं। इसमें केवल ध्येय (लक्ष्य )विषय का ही ज्ञान होता हैं तथा ध्येय विषय के अतिरिक्त अन्य विषयों का अभाव हो जाता हैं, साधक को अपनी पृथक अनुभूति नहीं होती।
 
• असम्प्रज्ञात समाधि.. यह समाधि की सर्वोच्च अवस्था हैं, इसमें चित्त की सम्पूर्ण वृतियाँ निरुद्ध हो जाती हैं इसलिए इसे निर्बीज समाधि भी कहते हैं, इस अवस्था में चित्त में कोई भी विषय शेष नहीं रेह जाता। इस के पूर्व की अवस्था में केवल शुद्ध संस्कार ही शेष बचते हैं, निर्बीज समाधि में वे भी समाप्त हो जाते हैं।

इस प्रकार अष्टांग योग साधना में साधक समाधि की चरम अवस्था को प्राप्त कर उस विराट में लीन हो योग को प्राप्त होकर अपने जीवन को सार्थक बना पाता हैं । 

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