अष्टांग योग में बहिरंग साधना (यम और नियम )

योग और साधना दोनों ही शब्द आध्यात्मिकता की गहराइयों को दर्शाते हैं, ईश्वर से जीवआत्मा का एकात्म हो जाना जहां योग है वही इस एकात्म तक पहुंचने का मार्ग साधना है। जब भी योग साधना की बात की जाएं तो भारतीय दर्शन के छ: दर्शनों में से एक महर्षि पतंजलि के योग सूत्र के साधना पाद में वर्णित अष्टांग योग साधना एक विशिष्ट स्थान व महत्व रखती है। पतंजलि सूत्र में अष्टांग योग का अर्थ है साधना के वे आठ अंग जो ईश्वर से एकात्म की अनुभूति करा इश्वर में ही एकात्म हो जाए अष्टांग योग है।

अष्टांग योग के अंतर्गत - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि शामिल हैं।
अष्टांग योग साधना को बेहतर माध्यम से समझने हेतु साधक के लिए इसे दो भागों में विभक्त कर दिया गया है-

*बहिरंग साधना -यम ,नियम ,आसन,प्राणायम,प्रत्याहार 
*अन्तरंग साधना -धारणा,ध्यान ,समाधी 

प्रारंभ के पांच अंग बहिरंग साधना वह अंतिम के तीन अंग अंतरंग साधना के रूप में पहचाने जाते हैं। चुंकि अष्टांग योग साधना एक गहरा व विस्तृत विषय है इसलिय इसे संपूर्ण रूप से एक लेख में लिखना आसान नहीं और इसे अति संछिप्त करना लेख के साथ न्याय नहीं होगा, इस हेतु अष्टाँग योग साधना को हम तीन लेखों में समझेंगे। इस लेख में हम बहिरंग साधना के अंतर्गत आने वाले यम व नियम को जानेंगे। किन्तु इस से पूर्व अष्टाँग योग साधना का उद्देश्य को ज्ञात करना भी अनिवार्य है।
अष्टाँग योग साधना का उद्देश्य हैं _
 
योगाङ्गाऽनुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः॥२.२८॥

अष्टांगयोग साधना का एकमात्र उद्देश्य "चित्त वृत्ति निरोध:" चित्त की वृत्तियों का पूर्णता अनमूलन कर मन की समाधिस्त अवस्था ही अष्टांग योग का परम लक्ष्य है, अर्थात सामान्य भाषा में चित्त अर्थात मन, वृत्ति अर्थात मन में उठने वाली विचार तरंगे, ये वृत्तियां ही है जो मन को चंचल बना उसे सांसारिक मायाजाल में बांधे रखती हैं चंचल मन को ही शांत करने की प्रक्रिया महर्षि पतंजलि ने योग सूत्र के अष्टांग योग में वर्णित कि।


यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि॥

१ .यम... मनुष्य का व्यवहार बाहरी जगत के साथ कैसा हो और किस प्रकार वह विनम्र व शांत चित्त हो स्वयं के चरित्र का निर्माण कर अध्यात्मिक साधना में अग्रशील हो ,इस हेतु साधक को यम का पालन करना अत्यंत अनिवार्य है,
यम के अंतर्गत-

अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः॥२.३०॥

अहिंसा , सत्य , अस्तेय , ब्रह्मचर्य , अपरिग्रहा: , यमाः॥



*अहिंसा.. सामान्य तौर पर अहिंसा को सिर्फ स्थूल शरीर तक सीमित कर देखा जाता है, कि हमारा बाहरी व्यवहार किसी के साथ हिंसात्मक ना हो, जैसे किसी के साथ मारपीट न करना, कटु वचन न बोलना इत्यादि , परंतु अष्टांग योग में सूक्ष्म शरीर में भी अहिंसा का पालन करना होता है अर्थात मन के भीतर आने वाले विचारों में हिंसा न हो यदि मेरे भीतर किसी के प्रति ईर्ष्या, द्वेष, घृणा का विचार आता है तो इसे भी हिंसा की श्रेणी में ही मान्य किया जाएगा।

* सत्य.. यदि हमारे दैनिक जीवन की बात करते हैं तो अपने शब्द और कृति से अपने मन में क्या है वैसा ही व्यक्त करना सत्य है। सामान्य जीवन में व्यक्ति आज दिखावा अधिक करता है, स्वयं से संबंधित चीजों को बढ़ा चढ़ा कर पेश करना उसका स्वभाव हो गया है, सत्य साधना के दौरान साधक को स्वयं को उसी प्रकार प्रस्तुत करना चाहिए जो उसका वास्तविक स्वरुप हो यही सत्य साधना है, किंतु इस बात का सदैव विशेष ध्यान रखना होगा कि हमारा सत्य सैदेव प्रिय व हितकारी हो, हमारा सत्य किसी को पीड़ा पहुंचाने वाला या अहित करने वाला न हो।
 
सत्यम ब्रूयात प्रियं ब्रूयात सत्यमप्रियम।
प्रियं च नानृतम ब्रूयात एष धर्म सनातन :।।


*अस्तेय.. अस्तेय अर्थात चोरी ना करना साधक को लगता है कि हम कम से कम  चोरी तो नहीं करते परंतु यहां चोरी से तात्पर्य पर अपने कर्तव्य को निष्ठा पूर्वक पूर्ण न करने से भी है , अपने कर्तव्य का पालन न करना भी चोरी की श्रेणी में ही आता है यदि कोई साधक साधना के दौरान नियमों का पालन नहीं करता तो इस का अर्थ है वहा अस्तेय का पालन नहीं कर रहा है ।

*अपरिग्रह.. अष्टांग योग में अपरिग्रह से तात्पर्य है साधक हेतु अनावश्यक संग्रह से बचना, अपनी आवश्यकता से अधिक का संग्रह परिग्रह है, इस भौतिक युग में मनुष्य वस्तुओं का संग्रह करने हेतु क्या-क्या नहीं करता उसके ऐसे ही कर्म उसे पतन की ओर ले जाते हैं।
योग में भौतिक संसार के संग्रह के अतिरिक्त सूक्ष्म शरीर में होने वाला अनावश्यक संग्रह से भी साधक को सचेत रेहना होता है, जैसे मन में व्यर्थ के विचारों का आना, अनावश्यक चिंता, भय, कल्पना इत्यादि भी परिग्रह कि श्रेणी में जोड़े जायेंगे है, एक साधक को साधना के दौरान दोनों सूक्ष्म व स्थूल शरीरों के प्रति सचेत हो अपरिग्रह का पालन करना होता है।

*ब्रह्मचर्य... यह दो शब्दों का मिश्रण है ब्रह्म +चर्य, ब्रह्म अर्थात परमात्मा और चर्य अर्थात प्रयास। परमात्मा की प्राप्ति हेतु की गयी साधना ब्रह्मचर्य है। साधना में साधक चित्त में उठने वाली तरंगो (व्रतियों )को शांत कर मन को निर्मल बनाने का प्रयास करता हैं क्यूंकि शुद्ध, निर्मल व शांत मन ही परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग हैं एवं इस मन को विचलित कर ईश्वर की प्रप्ति में आड़े आने वाला सबसे प्रबल विचार 'कामरूपी 'है, अतः कामरूपी विचारों को त्याग कर विषयेन्द्रियों द्वार प्राप्त होने वाले सुख के सयमपूर्वक त्याग को  ही ब्रह्मचर्य कहा गया है।


२.नियम.. अष्टांग योग का दूसरा अंग है नियम, ये भी पांच है -

शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः॥२.३२॥

शौच , संतोष , तपः , स्वाध्याय , ईश्वर , प्रणिधानानि , नियमा: ॥



जहां यम हमारा व्यवहार जगत के साथ कैसा हो इसे परिभाषित करते हैं तो वही नियम साधक हेतु आत्मसाक्षात्कार हेतु बनाए गए पांच बिंदुओं का समूह है...
 
*शौच.. शौच से तात्पर्य आंतरिक व बाहरी रूप से शुद्ध पवित्र व  निर्मल होना। शरीर व मन से शुद्ध व पवित्र साधक ही ईश्वर प्राप्ति हेतु अपना स्थान सुनिश्चित कर पाता है। स्थूल शरीर की शुद्धि के साथ-साथ मन का शुद्ध होना भी अनिवार्य है। मन की शुद्धि हेतु कामवासना, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा, अहंकार, कठोर वचन वाले विचारों के स्थान पर प्रेम, दया, करुणा, क्षमा व एकात्म की भावना को अपने भीतर विकसित करना होगा।
मन के मलिन विचारों को शुद्ध करने हेतु प्रतिपक्ष की भावना को अपनाएं उदाहरण यदि किसी के प्रति ईर्ष्या हो तो उस व्यक्ति के अच्छे गुण स्वभाव पर विचार करे।

*संतोष... एक साधक का संतोष अवस्था में रहना अत्यंत अनिवार्य है क्योंकि असंतोष मन को अस्थिर व चंचल बना साधक के मार्ग को बंधित करता है। संतोष का अर्थ है जो भी हमें उपलब्ध हुआ है उसके प्रति ईश्वर को कृतज्ञता प्रकट करना एवं उन उपलब्ध साधनों को साधन बना योग की अवस्था को श्रद्धा और आनंद के साथ प्राप्त करने हेतु प्रयासरत रहना। जीवन में संतोष न रहने पर मनुष्य जो उपलब्ध है उन साधनों का भी उपयोग न कर जीवन भर अधिक पाने की लालसा में असंतोष पूर्ण जीवन जी इस बहुमूल्य जीवन को व्यर्थ गंवा देता है।

"स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं प्रत्येक जीवात्मा वही पाने के अधिकारी है जो उसकी पात्रता है, जो भी हमें प्राप्त होता है वह हमारे ही कर्मों का फल है"!

मनुष्य जीवन को पाना ही हमारा सबसे बड़ा कर्म फल है तथा इस मनुष्य जीवन को संतोष पूर्वक व्यतीत कर साधक योग साधना में अग्रसर हो।

*तप... तप अर्थात हमारे चित्त में जमा अनेक जन्मों के मलिन संस्कारों को शुद्ध निर्मल करने हेतु किए गए कठोर व दृढ़ता पूर्वक प्रयास ही तप है। तप के अंतर्गत अपने मन को अंतर्मुखी कर संयम का अभ्यास करना... संयम के तहत वाणी पर संयम, निद्रा पर संयम, आहार पर संयम, विचारों पर संयम, संक्षिप्त में अपने मन पर संयम और धैर्य को बनाये रखते हुए आगे बढ़ने की प्रक्रिया तप है।

*स्वाध्याय.. स्वाध्याय का अर्थ स्वयं का अध्ययन क्योंकि जब साधक साधना के मार्ग की ओर बढ़ता है तो उसे स्वयं का अध्ययन अर्थात आत्ममंथन करना अत्यंत अनिवार्य हो जाता है ताकि उसे ज्ञात हो सके उसके भीतर कौन-कौन से दुर्गुण व सत गुण है? क्या उसकी योग्यताएं और क्षमताएं हैं? क्योंकि सामान्यत: मनुष्य स्वयं के परिचय से अनभिज्ञ रहता है। स्वंय का अध्ययन ही मन को समझने व साधने में सहायता प्रदान करता है। शास्त्रों का कथन है-

"आत्म विश्लेषण गणित के नियमों की भांति सिद्ध पुरुष उत्पन्न करने का कार्य करता है"!


*ईश्वर प्रणिधान.. कर्तापन की भावना का त्याग कर साधक अपने समस्त कर्मों को ईश्वर को समर्पित करे यही ईश्वप्रणिधान हैं । अपने समस्त कर्म फल, कर्तव्य व कर्तापन ईश्वर को समर्पित कर साधक 'अहंकार' व 'मैं भाव' से मुक्त हो कर देह से विदेह की यात्रा की ओर अग्रीण होता है।

अतः इस लेख में हमने अष्टाँग योग साधना के अंतर्गत आने वाली बहिरंग साधना में यम व नियम को समझा, अगले लेख में हम आसन, प्राणायाम व प्रत्याहार को  समझेंगे। 


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